नई दिल्ली: हिंसक तरीके से समूचे तंत्र का उखाड़कर नई व्यवस्था स्थापित करना नक्सलवाद का सैद्धांतिक मकसद है। इसके हिसाब से राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। राजनीति को यह रक्तपात रहित युद्ध और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति मानते हैं। इस विचारधारा के संस्थापक चारु मजूमदार और कानू सान्याल रहे।
नक्सलवाद की सफलता और असफलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कानू सान्याल ने जहां से इस आंदोलन की शुरुआत की थी, वहीं पर 23 मार्च 2010 को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। इसके बारे में जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। 1968 में नक्सलवाड़ी में उग्र चरमपंथी आंदोलन नक्लवाद की शुरुआत जमींदारों के अत्याचार के खिलाफ हुई।
असम के रहने वाले कानू सान्याल नक्सलवाद ने पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से 25 किलोमीटर दूर सेफ्तुल्लाजोटे गांव में नक्सल आंदोलन की शुरुआत अपने घर से ही की थी। 23 मार्च 2010 को उसी घर में उनका शव फंदे से लटका हुआ पाया गया। माना जाता है कि वह नक्सलवादी आंदोलन के पथ से भटक जाने से दुखी थे। सान्याल बुढ़ापे से संबंधित हृदय-फुफ्फुसीय बीमारियों से भी पीड़ित थे। अपनी मृत्यु के समय वे मूल पार्टी के कई अलग-अलग समूहों के विलय से बनी नई सीपीआई (एमएल) के महासचिव थे।
आदिवासियों का नक्सलियों ने किया नुकसान
नक्सल प्रभावित कांकेर जिले में एसपी रह चुके और फिलहाल स्पेशल ब्रांच के तेज-तर्रार डीआईजी एमएल कोटवानी का कहना है कि नक्सलियों ने सबसे ज्यादा प्रताड़ित आदिवासी समाज को ही किया है। अभी कुछ दिन पहले तक आदिवासी समाज के लोग इनके चक्कर में फंसकर दोनों तरफ से मार खा रहे थे। उन पर माओवादी नेताओं का दबाव माओवादी बनने के लिए बनता था। इंकार करने पर वह मार दिए जाते थे। बन जाने के सूरत में वह सुरक्षा बलों के हाथों जान गवां देते थे।
एमएल कोटवानी के मुताबिक, आदिवासी समाज के लोग कभी उच्च पदों पर नहीं रहे। मुठभेड़ में अधिकांश छोटे स्तर के माओवादी ही सामने ढकेले जाते हैं। फ्रंटलाइनर होने से अमूमन इनको ही जान गंवानी पड़ती है। दूसरी तरफ बड़े पदों पर बैठे नक्सली सुरक्षित रहते हैं। हार्डकोर माओवादियों में नीचे के अधिकांश सिपाही आदिवासी समाज से ही रहे हैं। माओवादी हमेशा उन्हें धमकी माओवादी बनने के लिए दबाव बनाते रहे हैं।
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि बड़े स्तर पर हार्डकोर नक्सलवादियों के बच्चे विदेश में पढ़ते हैं। जबकि प्रभावित क्षेत्रों में इन्हीं की वजह से स्कूल तक नहीं खुलने पाता। इसके पीछे उनका मकसद है कि यदि आदिवासी समाज विकसित हो जाएगा तो फिर वे माओवादियों के बहकावे व डर से भयभीत नहीं होगा।
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जमींदारों के खिलाफ लड़ाई के संस्थापक जमींदार
नक्सलवाद जमींदारों और सरकार के खिलाफ रक्तरंजित विद्रोह है। इसके संस्थापक संस्थापक चारु मजूमदार खुद जमींदार परिवार से थे। उनके पिता बीरेश्वर मजूमदार एक स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की दार्जिलिंग जिला समिति के अध्यक्ष रहे। आज उच्च पदों पर बैठे नक्सली नेता सवर्ण हैं। आदिवासी समाज के लोग नीचे स्तर पर पदाधिकारी हैं। अवैध वसूली आदिवासी समाज के लोग करते हैं, ऊंचे पदों पर बैठे ऊंची बिरादरी के लोग उस पर मजा करते हैं।
2004 में मिला दिये गये दो नक्सली संगठन
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) या भाकपा (माओवादी) दो खूंखार नक्सली संगठनों के विलय से बनी। माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और भाकपा माले, पीपुल्स वार ने 21 सितंबर 2004 को आपस में मिलने का फैसला लिया। इसकी आधिकारिक घोषणा उसी साल 14 अक्तूबर को की गयी। इसके बाद तदर्थ केन्द्रीय कमेटी बनी। इसका महासचिव पीपुल्स वार नेता गणपति बना। इसका सही नाम मुप्पला लक्ष्मणा राव है।
2009 में भारत सरकार ने घोषित किया आतंकी संगठन
22 जून, 2009 को भारत सरकार ने भाकपा माओवादी को आतंकवादी संगठन घोषित करते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया गया था। फिर, इसके कार्यकर्ताओं पर यूएपीए के तहत कार्रवाई शुरू हो गयी। आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा सरीखे राज्यों में पहले से ही संगठन पर प्रतिबंध लागू था। देशव्यापी प्रतिबंध लगने के बाद रैलियों, आमसभा और दूसरे सार्वजनिक कार्यक्रमों पर रोक लग गई। साथ ही उनके कार्यालय और बैंक अकाउंट भी जब्त होने लगे। गृह मंत्रालय में उच्चस्तरीय बैठक के बाद माओवादियों को प्रतिबंधित करने का फैसला लिया गया।
सिद्धांत सिर्फ किताबों, काम हिंसा फैलाने का
नक्लवाद के सिद्धांत और व्यवहार में बड़ा फासला है। जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ाई का नारा देने वाले माओवादी नेता स्वयं उपभोगवादी बन बैठे हैं। इनका जुबानी तौर पर कहना था कि यह आदिवासी समाज को जंगल का हक दिलाएंगे। इसके लिए सशस्त्र आंदोलन शुरू किया। लेकिन आज आतंक का पर्याय बने नक्सलवादी सबसे ज्यादा आदिवासी समाज का ही नुकसान कर रहे हैं।