साथी की लाश लेकर भागना नक्सलियों की फितरत

शातिर दुश्मन की फितरत छिपकर वार करने की है। वह अपने नुकसान पर पर्दा डालता है। विरोधी की हार पर हर दिन हवाबाजी भी करता है। मनोबल कायम रखने का यह उसका एक तरीका है। और नक्सली इस तरीके को हर मुठभेड़ में आजमाते हैं। अबूझमाड़ में यह कैसे हुआ होगा, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार व नक्सल मामलों के विशेषज्ञ उपेंद्र नाथ राय....

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नई दिल्ली: सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में नक्सली अपना और अपने समर्थकों का मनोबल कायम रखने का जो तरीका अपनाते हैं, उसमें अपने नुकसान को ढंके रखने की उनकी पुरजोर कोशिश रहती है। एंबुस में फंसने, हताहत होने या साथी नक्सली की जान चली जाने पर वह हताहतों और मृतकों को लेकर भाग निकलते हैं। वहीं, पुलिस मृतकों की संख्या उतनी ही बताती है, जितने शवों की वह बरामदगी कर पाते हैं। इससे नक्सलियों का वास्तविक नुकसान अज्ञात रह जाता है। मुठभेड़ के बाद कई बार वास्तविक तस्वीर बाहर नहीं आ पाती। नक्सल प्रभावित क्षेत्र के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस बात को स्वीकार भी किया।

इस पर पहले भी बात हुई है कि माओवादी कभी भी आमने-सामने का संघर्ष नहीं करते। वह पीछे से आते हैं, और घात लगाकर सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं। अपने एंबुस में फंसाने की को​शिश भी उनकी रहती है। दूसरी तरफ जब कभी उनके साथी सुरक्षा बलों के हाथ मारे जाते हैं, तब वह जितना संभव होता है, उतनी लाशें लेकर घने जंगलों में फरार हो जाते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी को​शिश अपना नुकसान कम दिखाने की रहती है। ऐसा हर मुठभेड़ में होता है।

स्मारक बनने पर पता चलता, मारा गया नक्सली

कई बार ऐसा भी हुआ है कि पुलिस को मुठभेड़ में मारे गए नक्सली का पता तब पता चल पाता है, जब नक्सली उसका स्मारक बना देते हैं। वह यह स्मारक अपने मृत नक्सली साथी की याद में बनाते हैं। वह मई से जुलाई के बीच यह काम होता है। इस दौरान वह जगह-जगह स्मारक बनाते हैं। यही नहीं, हर साल इसकी एक पुस्तिका भी छपवाते हैं। इसको आम लोगों के बीच बांटा भी जाता है। इससे प्रशासन को कई बार पता चलता है कि अमुक माओवादी मुठभेड़ में मार दिया गया है।

अबूझमाड़ में भी 27 से ज्यादा की हुई होगी मौत

कुछ ऐसी ही स्थिति अबूझमाड की भी रही होगी। पुलिस को मुठभेड़ के बाद 27 लाशें मिली और इतनी ही संख्या मारे जाने की घोषणा कर पायी। लेकिन वहां के आ​धिकारिक सूत्रों की मानें तो आंकड़ा ज्यादा हो सकता है। वजह यह कि नक्सलियों की जो कंपनी बासव राजू की सुरक्षा में थी, उसमें सदस्य संख्या 40 से ज्यादा होने की अनुमान है। सुरक्षा बलों ने इतने सटीक तरीके से नक्सलियों को घेरा था कि बचना लगभग नामुमकिन था। अब आगे जैसे-जैसे इनके पर्चे मिलेंगे, स्मारक बनेंगे, वैसे-वैसे पुलिस आगे मौतों की पुष्टि कर सकेगी।

नक्सलियों का हमला होता कायराना

पुलिस की कठिनाई का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि मुठभेड़ के दो दिन बाद भी पुलिस हथियारों का जखीरा जंगल में तलाशती रही। माओवादी सुरक्षा बलों पर कायराना हमला करते हैं। इसको इस घटना से समझा जा सकता है। एक बार बांदे में बच्चों का क्रिकेट मैच हो रहा था। उसमें स्थानीय एसएचओ को भी मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था। मैच में एसएचओ ने जैसे ही टास उछाला, खिलाड़ियों के वेश में खड़े नक्सलियों ने उनको घेर लिया और वहीं पर वह शहीद हो गए। इसमें ऐसा हुआ था कि नक्सलियों ने एक दिन पहले खिलाड़ियों को कैद कर लिया था और खुद खिलाड़ी के वेश में आ गये थे।

एक कदम चल रहे माओवादी, पुलिस चल चुकी होती चार कदम

वरिष्ठ पत्रकार और माओवादी क्षेत्र में रहने वाले नीयत श्रीवास का कहना है कि पुलिस की घेराबंदी ने माओवादियों की रीढ़ तोड़ दी है। वर्तमान में यदि माओवादी एक कदम चलने की कोशिश करते हैं तो सुरक्षा बल चार कदम चल चुका होता है। इसकी बड़ी वजह सड़कों का जाल बिछ जाना है। पहले नक्सलियों तक पहुंचने के लिए पैदल प्रशासन को 10-10 किमी तक घने जंगलों में चलना होता था। उसी में कई बार पुलिस एंबुस में खुद फंस जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

टीसीओसी में भी फ्लाप रहे माओवादी

रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक राय बताते हैं कि अब माओवादी पलायन की ओर हैं। यह राजनीतिक इच्छा शक्ति की देन है। इससे पता चलता है कि सत्ता में बैठे लोग यदि इच्छा शक्ति मजबूत करें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है। इस साल टीसीओसी के समयाकाल में भी माओवादी किसी बड़ी घटना को अंजाम नहीं दे पाये। हर सप्ताह वे खुद के लोगों की लाशें गिनते रहते हैं।

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Suman

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