दीर्घजीवी होने के लिए हर आंदोलन को संगठन की ढाल चाहिए। लेकिन जब सत्ता लाठी भांज रही हो तो मजबूत संगठन टिके रहने की पहली शर्त बन जाता है। वह भी ऐसा, जिसमें विस्तार हो, समर्पित व अनुशासित कार्यकर्ताओं की फौज हो, दूसरी लाइन के नेतृत्व में दमन के बीच से बच निकलने की समझ व कारगर रणनीति हो और संदेश प्रसार का मजबूत नेटवर्क हो। इनके सहारे ही आमजन को आंदोलन से जोड़ा जा सकता है।
20वीं सदी के 70 के दशक में तीन संगठन राष्ट्रीय स्तर पर इस मांग को पूरा कर रहे थे। कांग्रेस, वामपंथी दल व स्वयंसेवक संघ। समाजवादी, गांधीवादी, सर्वोदयी आदि के नेता तो थे, लेकिन इनका संगठन कमजोर था। यह वही दौर था, जब देश जेपी आंदोलन का साक्षी बना और जिसे आपातकाल रूपी हथियार से सरकार कुचलने की कोशिश भी कर रही थी।
सरकारी दमन के बाद भी करीब तीन साल तक आंदोलन चला। बगैर किसी मजबूत संगठन का समर्थन मिले यह संभव नहीं था। कांग्रेस व वामदल इसके पीछे नहीं थे। कांग्रेस ने ही आपातकाल लागू किया था। जबकि अपनी ‘support and struggle’ की थ्योरी से वामदल या तो आंदोलन के खिलाफ थे या न्यूट्रल। कई बार इन लोगों ने मुखबिरी भी की थी। सिर्फ संघ ही ऐसा संगठन था जो 1974 के छात्र आंदोलन से ही साथ खड़ा था। जेपी जब आंदोलन पर छा रहे थे, तब भी सहारा संघ ने ही दिया। हालांकि, आपातकाल लगने से पहले तक साथ अनौपचारिक ही रहा।
संगठन विस्तार की दृष्टि से देखें तो 1974-75 में संघ की देश भर में करीब 7,000 शाखाएं थीं। इसका फैलाव 80 फीसदी जिलों तक था। इससे संघ कम से कम जिला केंद्रों तक ठीक ढंग से संवाद संप्रेषण करने की हालत में था। पूरे देश में संघ के करीब 1,200 प्रचारक थे, इसमें से बमुश्किल 115 को ही सरकार गिरफ्तार सकी थी। मतलब यह कि नेताओं की दूसरी पंक्ति मजबूती से काम कर रही थी।
आपातकाल लग जाने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आधिकारिक तौर पर जेपी आंदोलन से जुड़ा। तीन जुलाई 1975 को सर संघ चालक बाला साहब देवरस का बयान आया, ‘अब संघ की शाखाएं नहीं लगेंगीं। स्वयंसेवक जन आंदोलन में हिस्सा लेंगे।’ इसके अगले दिन चार जुलाई को संघ की सभी गतिविधियों पर प्रतिबंध लग गया। बाला साहब यरावदा जेल में बंद थे। संघ व जन संघ के दूसरे नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल लगने के बाद 65,000 लोग गिरफ्तार किए थे। जबकि इतने ही लोगों को नवंबर 75 से जनवरी 76 तक चले सत्याग्रह में गिरफ्तार किया गया था। उस समय संघ ने महिला कार्यकर्ताओं को भेजकर हर जिले में बंदियों के आंकड़े जुटाए थे। इससे पता लगा कि जेल में 70 फीसदी लोग संघ परिवार से हैं। बाकी 30 फीसदी सब मिलाकर थे। इसमें समाजवादी, सर्वोदयी, गांधीवादी व स्वतंत्र जन शामिल थे।
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भारत में तो रूस का कब्जा हो गया होगा!
आपातकाल से पहले ही नाना जी देशमुख ने लोक संघर्ष समिति बनाई थी। यह थी तो सर्वदलीय, लेकिन इसकी रीढ़ संघ के ही लोग थे। समिति के पहले महासचिव नाना जी देशमुख थे। जब वह अगस्त में गिरफ्तार हो गए, तो दत्तोपंत ठेंगडी सहमंत्री व रविंद्र वर्मा मंत्री बने।
समिति ने आपातकाल के खिलाफ दस सप्ताह के सत्याग्रह की योजना बनाई। इसका समय 14 नवंबर 1975 से 26 जनवरी 1976 के बीच का तय किया गया। योजना के अनुसार सप्ताह में एक दिन जिला मुख्यालय पर सत्याग्रह करना था। 11 सत्याग्रहियों का जत्था जिला कलेक्ट्रेट तक नारे लगाते जाएगा। वहां सभी की गिरफ्तारी होगी। फिर, इन पर डिफेंस ऑफ इंडिया रूल के तहत मुकदमा चलेगा और सब जेल जाएंगे। समिति का आग्रह था कि सत्याग्रहियों में आपातकाल विरोधी हर विचारधारा के लोगों को जोड़ा जाए। गांधीवादी व सर्वोदयी तो तैयार थे। समाजवादियों के अंदर दो तरह के लोग थे।
उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। आपातकाल लगने के बाद बैठकों के सिलसिले में गोविंदाचार्य का बेतिया, नौतन होते हुए वीरगंज तक जाना हुआ। वहां एक समाजवादी नेता मिले। आपातकाल लगते ही वह नेपाल भाग गए थे। मिलते ही उन्होंने कहा, ‘अरे गोविंद जी, आपके यहां भारत में तो रूस का कब्जा हो गया होगा।’
‘कब्जा नहीं हुआ भैया, हम तो घूम ही रहे हैं।’
‘अब क्या होगा?’
‘सत्याग्रह होना है। चलिए, उसमें शामिल होइए।’
उन्होंने कहा, ‘हम लोग क्या करेंगे। हम तो बहुत निराश हैं।’
‘देखिए, निराश-विराश होइएगा तो चलेगा नहीं। यहां मत रहिए आप। साथ चलिए। नहीं तो हम बता देंगे वहां कि आप यहां छिपे हैं।’ इसके बाद में वो लौटकर आए और गिरफ्तार कर लिए गए।
जेल में कम से कम जाड़े में कंबल तो मिल जाता है
आरा के एक और समाजवादी थे। जेल जाने के बाद वो प्रशासन से कहते, ‘हम आपके मेहमान हैं। हमको कपड़ा दीजिए। हम यहां अपना क्यों पहने। नहीं दोगे तो आधे घंटे में हम कपड़ा खोल देंगे।’ और हकीकत में नहीं मिलने पर वह अपना कपड़ा निकाल देते थे।
एक बार उन्होंने गोविंदाचार्य से कहा, ‘हम थोड़ी चालाकी करते हैं, हर अक्तूबर में आंदोलन में शामिल होकर। इससे कम से कम जाड़े में कंबल तो मिल जाता है।’
एक अन्य समाजवादी रामदेव सिंह से जब गोविंदाचार्य ने बात की, तो उनने कहा, ‘आप जो हर सप्ताह 11-11 लोगों का सत्याग्रह करने को कह रहे हैं, यह सब हमसे नहीं होगा। हम भेज नहीं पाएंगे। कोई हमारे कहने से नहीं जाएगा। हम जाएंगे तो पीछे चले सब जाएंगे। लेकिन हमारे बगैर कहिए कि जेल चले जाइए तो एक भी नहीं जाएगा। ऐसा करिए कि हमारा एक दिन बांध दीजिए।’
इसके बाद उनका एक दिन तय किया गया और उस दिन वह 250 लोग जेल पहुंच गए। यह समाजवादी आंदोलन की विशेषता उस दौरान दिखी। इससे स्पष्ट पता चलता है कि उनमें नेता ही प्रमुख है, संगठन प्रमुख नहीं है।
केरल में संघ पर दमन ज्यादा
दूसरी ओर केरल में सत्याग्रह संघ कार्यकर्ता चला रहे थे। यहां दमन ज्यादा था। हर सप्ताह जितने सत्याग्रही जाते थे, पुलिस हर एक का सिर फोड़ देती। कोई भी सत्याग्रही बचता नहीं था। वो इसलिए कि वह अगली बार लौटकर न आए। एक और खूबी थी इसमें। जिनको अगले सप्ताह जाना होता वो नारा लगाने के लिए सत्याग्रहियों के साथ, उनकी गोल में होते। सत्याग्रह वो 11 लोग करते थे, अगले सप्ताह आनेवालों की रिहर्सल हो जाती थी। रिहर्सल में जो गए, उनको भी आगे आना है। माथा फूटना तय है। लेकिन अगले सप्ताह वो डरे नहीं। और कोई सप्ताह ऐसा नहीं रहा जो खाली गया हो।
इसे देखकर सीपीएम नेता एके गोपालन ने कहा था, ‘आज हमको पहली बार महसूस हुआ कि पेट के मुद्दे के अलावा भी मुद्दे हो सकते हैं, जो बलिदान की प्रेरणा देते हैं। संघ के सत्याग्रह से हमने यह सीखा है।’
26 जनवरी का सत्याग्रह खत्म हो गया। इसके बाद संघ ने एक प्रारूप बनाया। इसका नाम था क्रियान्वयार्थ। इसमें एक विषय था कि जनरोष को संगठित करने के लिए संवैधानिक माध्यमों का उपयोग करने हेतु जो इनोसेंट संगठन आज हैं, स्वयंसेवक उनमें घुसकर सक्रिय हों। वहां से वह जनरोष को संविधान के दायरे में संगठित करें। संघ के कार्यकर्ताओं की इसमें पूरी योजना होनी चाहिए। आपातकाल में इसका ड्राफ्ट पेपर पूरे देश में बांटा गया। इस पर व्यापक चर्चा हुई।
आपातकाल लगते वक्त पूरे देश में करीब 1,200 प्रचारक थे। इसमें से सिर्फ 115 को ही गिरफ्तार किया जा सका था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इससे नाराज भी हुई थीं। उन्होंने देश भर के आईजी की बैठक बुलाई और यह सवाल प्रमुखता से उठाया। बैठक में मौजूद एक-दो आईजी का जवाब था कि मैडम, कैसे पकड़ें, वो लोग सार्वजनिक जगहों पर आते ही नहीं। वो घर-घर रहते हैं। हर घर में कैसे छापेमारी संभव है। इसीलिए वह पकड़े नहीं जा सके हैं। इस पर इंदिरा गांधी कुछ बोली नहीं।
संघ ने क्रियान्वयार्थ में अपने सभी प्रचारकों को लगा दिया। अशोक सिंघल को उत्तरांचल व भानु प्रताप शुक्ल को उत्तर प्रदेश व दिल्ली दिया गया। गोविंदाचार्य को एबीवीपी में भेजकर उन्हें बिहार, पश्चिम बंगाल, आसाम व उड़ीसा की जिम्मेदारी मिली। बिहार के साथ पूरब जोड़ दिया गया। इसका हेडक्वॉर्टर कोलकाता था। इसकी वजह यह रही कि पटना में गोविंदाचार्य को पुलिस खोज रही थी। बंगाल में गोविंदाचार्य ने वंदेमातरम शतवर्षपूर्ति उत्सव समिति बनाई। जस्टिस मित्रा थे, उनको इसका अध्यक्ष बना दिया गया था। वो जानते थे कि ये सब शाखा वाला है, लेकिन सुहानुभूति थी।
अक्तूबर से तय हुआ कि संघ का कोई न कोई पदाधिकारी जिलों तक जाए। बिहार में शेषाद्रि, दत्तोपंत, भाऊ राव देवरस, रज्जू भइया आदि का आना हुआ। इन सबको पुलिस खोज रही थी, लेकिन इन तक पहुंच नहीं सकी। सब वेश बदलकर घूमते। मसलन, आर्मी के पुराने आफिसर से छड़ी लेकर रज्जू भइया घूमते थे। इससे पुलिस को शक भी नहीं होता।
क्रियान्वयार्थ पिकअप हो रहा था। इससे कम से कम स्वयंसेवकों को इंगेजमेंट मिल गया। अपने स्तर पर छोटे-छोटे कार्यक्रम भी वह आयोजित कर रहे थे। लेकिन साल के आखिर में आपातकाल के दमन की तीव्रता कम हो गई थी। देश का सियासी माहौल बदलने लगा था। लिहाजा क्रियान्वयार्थ भी धीमा पड़ गया।
माफी का मिथ
जेपी आंदोलन में सबसे ज्यादा भागीदारी संघ की थी। तभी आपातकाल की सबसे ज्यादा मार भी संघ पर ही पड़ी। जेल में होने से स्वयंसेवकों की गृहस्थी उजड़ रही थी। कारोबारियों का कारोबार बर्बाद हो गया था तो नौकरीपेशा बेरोजगार हो चले थे। संकट कुल मिलाकर आजीविका का था।
इन्हीं हालात में अटल बिहारी वाजपेयी का नजरिया सरकार से बातचीत का बना। उनका मानना था कि संघर्ष लंबा चला है। संघ का सत्याग्रह भी हो गया है। अब वार्ता की तरफ जाना चाहिए। इस आशय का एक पत्र उन्होंने फरवरी 1976 में संघ प्रमुख को लिखा। इसमें विस्तार से स्वयंसेवकों के संकटों का जिक्र था। संघ प्रमुख बाला साहब देवरस भी मान रहे थे कि वाजपेयी की बात में दम है। स्वयंसेवक कितने दिन तक जेल में रहेगे। उनके परिवार के भरण-पोषण का कोई तरीका तो बनना चाहिए। इसी सोच पर संघ मीसा पीड़ितों के लिए सहायता संग्रह कर भी रहा था।
वाजपेयी से कुछ हद तक राजी होने के बाद भी संघ प्रमुख का उनको जवाब था कि संवाद की पहल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से होनी चाहिए। तभी बात बनेगी। लेकिन तब तक इंदिरा गांधी की तरफ से कोई पहल नहीं हुई थी। संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख पांडुरंग पंत क्षीर सागर को हार्ट अटैक हुआ, मेडिकल ट्रीटमेंट नहीं मिला, उनकी जेल में ही मौत हो गई। बाला साहब का कहना था कि ऐसी स्थिति में कौन सा वो नैतिक मुंह होगा, जो संवाद की बात करें। संघ अपनी तरफ से आंदोलन को निरस्त नहीं कर सकता।
बाला साहब फरवरी 1976 में इंदिरा गांधी को लिखा, ‘संघ से कहा जा रहा है कि सत्याग्रह खत्म कर दे। वह बातचीत करे। लेकिन इसका कोई आधार हमको दिख नहीं रहा है। और हमारे इतने लोग बंद हैं, परिवार संकट में है। ऐसे सब लोगों के नेतृत्व का दायित्व हम पर है। हम ऐसा मानते हैं कि संघ शांतिपूर्ण तरीके से राष्ट्र के पुनर्निर्माण में लगा है, और यह अनावश्यक रूप से कानून अपने हाथ में लेने की कोशिश नहीं करता है। संघ का स्वभाव समझकर आप कोई पहल करेंगी, ऐसी हमें उम्मीद है। संघ अपनी तरफ से एक-तरफा कुछ नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री को अपनी तरफ से पहल करनी होगी।’
संघ प्रमुख की इन्हीं बातों का मतलब कुछ लोग यह लगा लेते हैं कि बाला साहब ने माफी मांगी। इसमें समाजवादी सबसे आगे रहे। समाजवादियों का यही मनोविज्ञान जनता पार्टी की सरकार में दोहरी सदस्यता की इश्यू का कारण बना, जिससे सारा-कुछ बिखर गया था। एक बात और, समाजवादी जनबल में कम होने के बाद भी वह ड्राइवर बने रहना चाहते थे। इसका सीधा मतलब था कि संघ का कैडर उनके हुक्म से चले, उनके लिए चले। वह राज करें और संघ उनकी पार्टी ढोती रहे। इसी का नतीजा दोहरी सदस्यता के तौर पर रहा, जिसके हिसाब से जनसंघ के नेताओं पर दबाव डाला गया कि वह संघ की सदस्यता छोड़ दे।
अगर इमानदारी से देखा जाए तो जनता पार्टी के संगठनात्मक चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से हो रहे थे। इसमें कमी नहीं थी। लेकिन समाजवादियों को चुनाव में जब लगने लगा कि जन संघ के लोग ही संगठन पर कब्जा कर लेंगे तो गड़बड़ शुरू कर दी। जबकि संघ के लोगों ने ऐसा कुछ सोचा नहीं था। 70 फीसदी वो हैं अकेले, और बाकी में सब हैं।
सत्याग्रह के दौरान संघ के अलावा केवल अकाली दल था, जिसका पंजाब में सत्याग्रह सबसे ज्यादा प्रभावी रहा। समाजवादियों का तो बहुत हल्कापन था।
मधु लिमए जैसे लोग कहते हैं कि संघ के लोगों ने माफी मांगी, समझौते पर दस्तखत कर लिया। वो यह भूल जाते हैं कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी को, जिननेदायां/बायां कुछ न देखकर भेंड़ की तरह लोगों को पकड़कर जेल में डाल दिया था। संघ का संपर्क रहा हो या न रहा हो, उनके बाबा-दादा रहे हों संघ में, कोई रिश्तेदार रहे हों संघ में, सबको जेल में फेंक दिया। अब उन लोगों का संघ से कोई वास्ता नहीं था। लेकिन जो गिरफ्तारी की गई वो संघ के नाम पर की गई थी। ऐसे लोगों के आचरण की तुलना संघ के स्वयंसेवकों से नहीं हो सकती थी।
ऐसी स्थिति में भी सबसे ज्यादा स्वयंसेवक ही जेल में थे। मान लो 100 स्वयंसेवक हैं, और पांच माफी मांगते हैं, और संघ के नाम पर लाए गए अन्य पांच सौ हैं, उनमें से 50 लोग माफी मांगते हैं तो 55 को तो संघ के दायरे में ढकेल दिया। इसके उलट समाजवादी और बाकी लोगों का 100:20 का भी आंकड़ा नहीं बैठता था। ऐसे में अगर बीसों ने माफी मांग ली हो, तब भी संख्या 55 नहीं बैठेगी।
एक बात और, आपातकाल के दौर में नसबंदी आदि नीतियों को लागू करते हुए संजय गांधी का मत था कि सांप्रदायिक स्तर पर भेद नहीं होना चाहिए। सबके प्रति कड़ा रुख रखना चाहिए। इसलिए यह अफवाह भी उड़ाई गई कि संघ संजय गांधी के प्रति नरम था। लेकिन संजय गांधी के साथ संघ का सद्भाव तक का रिश्ता नहीं था। क्योंकि संजय गांधी और इंदिरा गांधी जाने-अनजाने संघ को आनंद मार्ग के साथ जोड़कर देख रहे थे। आनंद मार्ग पर उस समय हिंसा के आरोप थे। इसका वो संघ के साथ साम्य कर रहे थे। इससे वह इस कोशिश में थे कि संघ के खिलाफ भी वातावरण बन जाए, छवि संघ की भी बिगड़ जाए। इसको वो अपनी सफल राजनीति मान रहे थे।
फरवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने संघ प्रमुख से बातचीत की कोशिश की। वह वक्त चुनाव का था। चुनाव में इंदिरा गांधी को अपना पलड़ा धीरे-धीरे कमजोर दिखने लगा। तब उन्होंने एकनाथ रानाड़े को बाला साहब के पास बातचीत के लिए यरावदा जेल भेजा। इंदिरा का संदेश था कि संघ चुनाव से हट जाए तो सरकार चुनाव के बाद इमरजेंसी भी हटा देगी और संघ पर से प्रतिबंध भी हट जाएगा। इंदिरा गांधी खुद को बचाने के लिए एक तरह से सौदेबाजी कर रही थीं। बाला साहब ने उनको जवाब दिया कि हम संकट के साथियों को बीच धारा में छोड़ नहीं सकते हैं। इसलिए वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। अब चुनाव बाद की स्थितियों में बात होगी।
चुनावी घोषणा के बाद सियासी हालात तेजी से बदल रहे थे। माहौल बदलने में नीचे के पूरे आंदोलन और राजनीतिक ढांचे में, जो कुछ भी था वो जनसंघ व संघ का ही था। बाकी नेता लोग थे। अधिकांश जेल में थे और जो बाहर आ गए थे वो असमंजस में थे। किसी को लग ही नहीं रहा था कि चुनाव में वो जीत पाएंगे। ज्यादातर समाजवादी चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते थे। लेकिन जेपी ने जोर दिया था कि यह लोकतंत्र का मौका है, हमने कमिट किया हुआ है तो हम तो लड़ेंगे। आखिर में सब चुनाव लड़े और कांग्रेस की करारी शिकस्त हुई।
आनंद मार्ग, संघ और आपातकाल
आनंद मार्ग की स्थापना 1955 में प्रभात रंजन सरकार ने की थी। अपने शिष्यों के बीच वे श्रीश्री आनंदमूर्ति के नाम से जाने जाते थे। बंगाल में उस समय नक्सलबाड़ी आंदोलन की हलचल तेज हो रही थी। समाज का बड़ा हिस्सा पूंजीवादी और वामपंथी विचारधारा के बीच बहस में उलझा हुआ था। इसी दौर में प्रभात रंजन ने अपने संगठन के जरिए ‘प्राउट’- प्रोग्रेसिव यूटिलाइजेशन थ्योरी, का प्रचार प्रसार शुरू कर दिया। यह धारा वामपंथ और पूंजीवाद दोनों का विरोध करती है और इसका लक्ष्य जमीनी स्तर पर ‘सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र’ की स्थापना है। आनंद मार्ग के मुखिया का कहना था कि यह ‘नव-मानवतावाद’ है। आध्यात्मिक स्तर पर यह संगठन वैदिक व तांत्रिक परंपराओं को मानता है।
कई आध्यात्मिक आंदोलन देख चुका बंगाल नक्सलबाड़ी आंदोलन के उस दौर में ऐसे किसी संगठन के फलने-फूलने के लिए बिल्कुल तैयार था जो अध्यात्म के मेल के साथ सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का क्रांतिकारी विकल्प देने का वादा करते हों। इन परिस्थितियों में आनंद मार्ग ने लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। यह संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का कट्टर विरोधी था और पार्टी कैडर व आनंद मार्गियों के बीच बंगाल में आए दिन झड़पें होती रहती थीं। डेढ़ दशक के भीतर ही यह संगठन बंगाल की राजनीति पर असर डालने लायक ताकतवर हो गया और इसी के साथ आनंद मार्ग से विवाद भी जुड़ने लगे।
1971 में संगठन के मुखिया प्रभात रंजन सरकार पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने एक अनुयायी की हत्या करवाई है। इस आरोप में उन्हें पटना जेल भेज दिया गया। आनंद मार्ग इसके बाद एक के बाद एक कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे इसकी छवि एक आतंकवादी संगठन जैसी बना दी। आपातकाल लगने के बाद इस संगठन को भी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। इंदिरा गांधी समेत उनकी सभी रणनीतियों की कोशिश थी कि आनंद मार्ग को किसी तरह संघ से जोड़ दिया जाए।
24 फरवरी 1977
वाकया आपातकाल के आखिर का था। हुआ यह था कि जनवरी में आम चुनाव की घोषणा हो गई थी। प्रत्याशी तय हो रहे थे। चुनाव अभियान शुरू था। कई नेता जेल से बाहर आ गए थे। कुछ कार्यकर्ता छूट गए थे और कुछ अंदर थे।
उम्मीदवार तय करने में भागलपुर की सीट फंसी हुई थी। जन संघ विजय मित्रा को सबसे उपयुक्त प्रत्याशी मान रहा था। संघ परिवार का रुख भी यही था। लेकिन जेपी का लगता था कि कुछ और होना चाहिए। वो बहुत अच्छे, मानिंद व्यक्ति प्रो. रामजी सिंह, जो सर्वोदयी कार्यकर्ता थे, को खड़ा करना चाहते थे। जनता पार्टी ने उनको उम्मीदवार घोषित कर दिया। इससे संघ परिवार के लोग अन्यमनस्क हो गए। ऐसा लग रहा था कि अगर वह पूरी तरह से चुनाव प्रचार में नहीं लगे तो सीट नहीं निकलेगी।
जय प्रकाश नारायण तक यह खबरें पहुंच रही थीं। इस पर उन्होंने गोविंदाचार्य को बुलवाया और कहा, ‘अगर ऐसे ही रहा तो हम भागलपुर की सीट हार जाएंगे। संघ परिवार के लोगों को तैयार करिए कि वो काम करें। बाकी जो चीजें होंगी, बाद में देखी जाएंगी।’
गोविंदाचार्य बोले, ‘ठीक है। कुछ करते हैं।’ और भागलपुर के कार्यकर्ताओं को संदेश भिजवाया, ‘मैं आ रहा हूं। चुनाव पर बैठक करनी है।’
अभी आपातकाल लागू था। गोविंदाचार्य के खिलाफ वारंट होने से गिरफ्तारी का डर था। लेकिन वह भागलपुर के लिए चल पड़े। बैठक तिलका मांझी में एक कार्यकर्ता के घर होनी थी। इसमें संघ परिवार व उसके अनुषंगी संगठनों से जो-जो लोग आ सकते थे, आए थे। बैठक स्थल पर वह करीब 10:30 बजे पहुंचे। घर के अंदर जाकर मुआयना किया कि संकट में फंसने पर कहां से निकला जा सकता है? लेकिन घर की बनावट ऐसी थी कि मुख्य रास्ते के अलावा वहां से निकलने का कोई दूसरा जरिया नहीं था।
पटना से निकलते वक्त गोविंदाचार्य ने अश्विनी चौबे को अपने साथ ले लिया था। बैठक स्थल की हालत देख उन्होंने कहा, ‘बैठक जल्दी करेंगे। जल्दी ही खत्म भी करेंगे। मैं बैठक का संचालन करूंगा। लेकिन चौकी पर अश्विनी चौबे बैठेंगे।’ और सबको यह भी बताया, ‘देखिए, मेरा नाम राम भरोस तिवारी है। मैं नेताजी के साथ आया हूं। अश्विनी चौबे छात्र नेता हैं। चुनाव की बात है। हमारा तो इतना ही कहना है कि अभी तो और कुछ नहीं देखा जा सकता। जो तय हुआ है उसको जिताना ही अपना काम है। देश के लिए आवश्यक है। पार्टी बाद की बात है।’
गोविंदाचार्य अपनी बात रख ही रहे थे, तभी देखभाल में लगा एक स्वयंसेवक अंदर आया। उसने पुलिस के आने की सूचना दी। उनको लगा कि अब तो गिरफ्तारी पक्की है। फिर भी, हालात संभालने की गरज से उन्होंने कहा, ‘अश्विनी जी, आप बैठक चलाना जारी रखिए। हम यहां नीचे बैठते हैं। शायद इससे बच जाएं। आप कहिएगा कि बैठक लेने हम आए हैं, पटना से। हमारा जिक्र ही मत करिएगा।’
थोड़ी देर में पुलिस अंदर पहुंची। आते ही एसएचओ ने सवाल किया, ‘कहां है गाविंदाचार्य?’
इससे गोविंदाचार्य को तसल्ली हुई कि चलो, पुलिस उनको पहचान नहीं रही है। इसलिए मामला थोड़ा अनुकूल है।
इसके बाद उसने अगला सवाल किया, ‘अरे, वो आया था ना। गया कहां?’
अश्विनी चौबे ने कहा, ‘नहीं हुजूर, मैं आया हूं। विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष हूं। चुनाव प्रचार के लिए आया हूं।’
‘अरे हां, वो तो ठीक है। लेकिन ये सब कौन है?’
‘ये सब हमारे आंदोलन के कार्यकर्ता हैं। चुनाव में लगे हुए हैं।’
‘गोविंदाचार्य आया हुआ है। तुम लोगों को नहीं मालूम है क्या?’
‘नहीं, अभी आए नहीं हैं। कोई ऐसी आने की बात भी नहीं है।’
तब उसने एक-एक सबको उठाया। बारी-बारी से सबका नाम, पता, पेशा आदि पूछता गया।
गोविंदाचार्य तक पहुंचने पर उसने अपना सवाल दोहराया, क्या नाम है?’
उन्होंने कहा, ‘राम भरोस तिवारी।’
‘अच्छा, कहां के हो?’
‘आरा जिले के।’
‘पिताजी का क्या नाम है?’
‘जगेश्वर तिवारी।’
‘कहां के?’
‘भरौली है ना, उसके पास बनाही है। आप जानते ही होंगे। स्टेशन भी है बनाही। दियारा की तरफ पड़ता है।’
‘अच्छा-अच्छा, क्या करते हो?’
‘का करें हुजूर, हम फंस गए हैं, नेताजी के साथ। हम तो काम करते हैं।’
‘क्या काम करते हो?’
‘एक प्रिंटिंग प्रेस है हुजूर। उसी में कंपोजिंग का काम करते हैं। उसी से रोजी-रोटी चलती है। आज तो हम फंस गए यहां। काहे आए पता ही नहीं चल रहा है।’
‘अच्छा, ठीक है, बैठो-बैठो।’
पूरी तसल्ली करके एसएचओ वहां से चला गया। बस्ती से बाहर उनको इनफॉर्मर राम निवास त्रिपाठी मिले।
उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ, गोविंद जी मिले?’
‘नहीं, वो नहीं आए हैं। बेकार बात करते हो।’
‘अरे, कैसे नहीं आए हैं। चलिए हम दिखाते हैं। मोड़िए, हम बताते हैं।’
अब दुबारा पुलिस ने अपनी जीप मोड़ी। इस बीच बैठक खत्म होनी थी। लेकिन बाहर निकलने तक वह वापस लौट आए। बाहर निकलना था, निकल नहीं पाए। सब दुबारा बैठ गए। अंदर आते ही राम निवास त्रिपाठी बोले, ‘वो देखिए, गोविंद जी बैठे हैं।’
अब बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी। पुलिस ने गोविंदाचार्य को जीप में बैठा लिया। रास्ते में एसएचओ बोला, अरे साहब, आप इतने बड़े आदमी हैं। झूठ बोलते हैं।’
गोविंदाचार्य ने कहा, ‘झूठ या सच जो भी था, लेकिन बच तो गए थे। अब तो इनकी, राम निवास जी की मेहरबानी से पकड़े गए हैं।’
इसके बाद पुलिस गोविंदाचार्य को लेकर थाने में पहुंची। वहां रसगुल्ला, समोसा, चाय आदि से उनकी खातिरदारी की गई और शाम करीब पांच बजे भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया।
अंदर जाने पर गोविंदाचार्य को बहुत से स्वयंसेवक मिल गए। उनको देखकर सब खुश थे, ‘कि अरे, गोविंद जी आ गए हैं। यह तो बहुत बड़ा अच्छा है। अब बाहर की बहुत खबर मिलेगी इनसे।’
गोविंदाचार्य ने कहा, ‘देखो भइया, अब तो धरा गए हैं। पता नहीं, कब तक के लिए यहीं रहना होगा। इसलिए आज तो हम खाकर सोएंगे। कल बात की जाएगी।’
इसके थोड़ी देर बाद उनको सेल में ले जाया गया। जहां भोजन कर वह सो गए। सुबह आदतन जल्दी उठना हुआ। लेकिन सेल का दरवाजा सात बजे खुला। वह बाहर आए, टहलते-टहलते लोगों से बात करते रहे। ऐसा होते-होते 9 बज गए। तब तक एक सिपाही ने सूचना दी कि कोई मुलाकाती आया है।
गोविंदाचार्य चौंके और सवाल किया, ‘हमारा मुलाकाती, वो भी सुबह-सुबह?’
‘हां-हां। दरवाजे पर खड़े हैं, बहुत जल्दी बुलाया है आपको,’ उसने जवाब दिया।
गोविंदाचार्य तेज कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ चले। वहां उन्होंने संघ कार्यकर्ता पूरण मल बाजोरिया के बेटे राजेंद्र मल बाजोरिया को देखा।
मिलते ही उन्होंने कहा, ‘गोविंद जी तुरंत निकलिए।’
गोविंदाचार्य ने पूछा, ‘क्या हुआ?’
‘आपको जमानत मिल गई है।’
‘कैसे?’
‘सुबह-सुबह पिताजी गए थे मजिस्ट्रेट के घर पर। वहीं सुनवाई हुई। आपको जमानत हो गई है। अगली तारीख चार अप्रैल की पड़ी है।’
‘तो?’
‘चलिए, जल्दी यहां से बाहर चलिए।’ गोविंदाचार्य के गेट पर पहुंचने से पहले राजेंद्र बाजोरिया ने कागज वगैरह देकर औपचारिकता पूरी कर ली थी। अंदर जाकर सामान लाने का मौका भी नहीं दिया और मोटरसाइकिल पर बैठाकर चल पड़े
रास्ते में उन्होंने बताया, ‘गोविंद जी, अभी खाना-वाना कुछ नहीं है। अपने पास टाइम नहीं है। सबसे पहले आपको जिले से बाहर करना है।’
‘ऐसा क्या हो गया, जो इतनी हड़बड़ाहट में हो?’गोविंदाचार्य का सवाल स्वाभाविक था।
‘हम लोगों को मालूम पड़ा है कि आपका जो मीसा वारंट पेंडिंग है, आपातकाल का, वो आज आप पर सर्व किया जाएगा, जेल के अंदर। 11 बजे का समय लगभग तय है। इसलिए इससे पहले हम लोगों को सीमा पार कर लेनी है।’
इसके बाद गोविंदाचार्य को पूरा मामला समझ में आया। बाइक से दोनों लोग जमालपुर पहुंचे। वहां राजेंद्र के पास जो 40-50 रुपये थे, उसे लेकर ट्रेन से पटना के लिए निकल गए।
ठीक 11 बजे जेल में मीसा वारंट पहुंचा। लेकिन तब तक गोविंदाचार्य पुलिस की पहुंच से दूर हो गए थे। जमानत की अगली तारीख चार अप्रैल की थी। इस बीच बहुत कुछ बदल गया था। 14 मार्च को चुनाव हुआ। सरकार गठन के बाद 23 मार्च तक आपातकाल खत्म भी हो गया। फिर, चार अप्रैल का कोई महत्व ही नहीं रह गया।
- (आखिरी पार्ट-4)