- जेपी बोले, ‘नहीं-नहीं, छोड़ो, सब लखैरा लोग हैं। इन्हीं लोगों ने गड़बड़ की है। देखो, कितनी आगजनी हुई है।‘
- गोविंदाचार्य ने सफाई दी, ‘नहीं, ऐसा नहीं है।‘
छात्र आंदोलन के पहले कैदी बनने से तो गोविंदाचार्य बच गए, लेकिन अब उनको फिक्र इस बात की थी कि आगे क्या किया जाए? उन्होंने प्रांत प्रचारक को फोन किया। बाहर प्रवास पर होने से उनसे बात नहीं हो सकी।
तब उन्होंने प्रांत संघ चालक को फोन मिलाया। संघ चालक की सलाह थी कि अभी तीन-चार दिन गिरफ्तार मत होना। मिलने पर बात होगी। गोविंदाचार्य राजी हो गए।
उधर, आंदोलन का दमन करने के लिए पुलिस की कार्रवाई जोरों पर थी। पूरे शहर में कर्फ्यू था। पहले दिन ही बहुत से लोग गिरफ्तार हो गए थे।
घेराव के दूसरे दिन 19 मार्च को गोविंदाचार्य जय प्रकाश नारायण से मिलने उनके आवास पर पहुंचे।
उन्होंने कहा, ‘बहुत गड़बड़ हुआ है, आप इस पर बयान दीजिए।’
जेपी बोले, ‘नहीं-नहीं, छोड़ो, सब लखैरा लोग हैं। इन्हीं लोगों ने गड़बड़ की है। देखो, कितनी आगजनी हुई है।’
गोविंदाचार्य ने सफाई दी, ‘नहीं, ऐसा नहीं है। सारा काम कम्युनिस्टों का है।’
जेपी ने कहा, ‘तुम्हारी बात मैं कैसे मान लूं?’
‘मैं प्रमाण देता हूं न आपको। प्रदीप व सर्च लाइट अखबार आंदोलन के समर्थक हैं। अगर आंदोलनकारियों ने आगजनी की होती तो इन दोनों के दफ्तर को क्यों जलाया? ऐसा तो वही करेंगे न, जो आंदोलन के विरोधी होंगे। छात्र अगर नाराज होंगे तो रेलवे रोकेंगे। आंदोलन के अखबार तो नहीं जलाएंगे। जलाना था तो सरकार समर्थक आर्यावर्त को जलाते। इसलिए ऐसा मत समझिए।’
इसके बाद दोनों में बहुत सारी बातें हुईं। विस्तार से गोविंदाचार्य ने जेपी को आंखों देखी कहानी बताई। पल-पल का ब्योरा दिया।
आखिर में जेपी थोड़ा सहमत दिखे और बोले, ‘ठीक है। तुम जाओ। आगे की देखते हैं।’
उसके बाद जेपी से दूसरे और कई लोग मिले। तब जाकर उनका मन छात्र आंदोलन को लेकर अनुकूल हुआ।
27 मार्च को उन्होंने बयान जारी किया कि अगर शहर से कर्फ्यू नहीं हटा, तो वह 29 को सड़क पर उतरेंगे। जेपी की चेतावनी का असर भी हुआ और पुलिस ने 28 मार्च को कर्फ्यू हटा लिया।
इसी बीच 21 मार्च को प्रांत संघ चालक से गोविंदाचार्य की मुलाकात हुई। दोनों में घटनाक्रम पर विस्तार से चर्चा हुई।
प्रांच संघ चालक ने पूछा, ‘प्रांत प्रचारक से बात की तुमने?’
गोविंदाचार्य ने कहा, ‘नहीं, संपर्क नहीं हो पाया।’
‘ऐसा करो, अभी गिरफ्तारी मत दो। पांच दिन बाद प्रांत प्रचारक आने वाले हैं, फिर तय करेंगे।’
‘ठीक है।’ इसके बाद गोविंदाचार्य बचते-बचाते घूमते रहे। कर्फ्यू की वजह से शाखाएं बंद थीं। तो गोविंदाचार्य आंदोलन में लगे रहे। 31 मार्च को सुशील मोदी भी गिरफ्तार हो गए। अब समिति की बैठक होनी चाहिए थी। बचे हुए लोगों की बैठक कराए कौन? उन्होंने यह सब काम शुरू कर दिया। लेकिन वह कार्यालय पर नहीं गए। वहां पर पुलिस की नजर थी।
प्रांत प्रचारक के लौटने पर संघ चालक ने कहा, ‘हमारे घर चले आइए, दोपहर के भोजन पर। उसको (केएन गोविंदाचार्य) को भी बुला लेते हैं। कार्यालय में तो उसका आना कठिन है।’
प्रांत प्रचारक ने जवाब दिया, ‘नहीं-नहीं। मैं कहीं नहीं जाऊंगा। उसको मिलना हो तो कार्यालय पर आ जाए।’
संघ चालक ने कहा, ‘क्या बात करते हैं। आएगा तो गिरफ्तार हो जाएगा न।’
‘होता है तो होने दीजिए। हम नहीं जाएंगे बस।’ प्रांत प्रचारक ने कहा।
अब दोनों के बीच बातचीत तो हो गई, लेकिन गोविंदाचार्य को इसकी जानकारी नहीं मिली। पूरी बातचीत दोनों के बीच ही रह गई। प्रांत संघ चालक ने इसकी चर्चा उनसे नहीं की। वे चुप लगा गए। इससे प्रांत प्रचारक को लगा कि उसने अनुशासनहीनता की है।
गोविंदाचार्य को इसकी भनक भी नहीं थी कि उनके खिलाफ अनुशासनहीनता की बात सोची जाएगी। सारे हालात से वह अनजान थे। सूचना का बड़ा फासला आ गया था। इसकी वजह यह भी रही कि संघ चालक आंदोलन के पक्ष में थे। वह गोविंदाचार्य को असमंजस में नहीं डालना चाहते थे। इसलिए उन्होंने प्रांत प्रचारक की बात अपने पास ही दबाए रखी। नतीजतन, बिना किसी आशंका के गोविंदाचार्य आंदोलन में जुड़े रहे।
आंदोलन भी लगातार करवटें बदलता गया। 18 मार्च के लाठी चार्ज से तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के इस्तीफे की मांग मुखर हो गई थी। इससे पहले छात्र शैक्षणिक सुधारों की मांग कर रहे थे। 8 अप्रैल को जय प्रकाश नारायण का आंदोलन में पदार्पण हुआ था। गांधी मैदान में बड़ी रैली हुई। ‘भ्रष्ट व्यवस्था कांप रही है, लोक व्यवस्था जाग रही है’, ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’, ‘सच कहना अगर बगावत है, तो समझो हम भी बागी हैं’ जैसे नारों के बीच आंदोलन का लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन का हो गया।
हालांकि, इसी बीच तबीयत बिगड़ने से इलाज के लिए जेपी को वेल्लूर जाना पड़ा। 23 अप्रैल को रवानगी के वक्त जेपी ने कहा, ‘अब सरकार चलाने वाले अपनी नैतिक ताकत खो चुके हैं। ऐसे में विधानसभा भंग होनी चाहिए।’ इससे पहले उन्होंने सभी से हामी भरा ली थी कि आंदोलन में कोई दल के नाते शामिल नहीं होगा। सभी व्यक्ति के नाते ही इसमें हिस्सा लेंगे। और आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण रहेगा। इन शर्तों का उल्लंघन होने पर उन्होंने आंदोलन से अलग होने की चेतावनी भी दी।
आगे मई में विपक्ष के विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इसकी शुरुआत कर्पूरी ठाकुर से हुई। इससे विपक्षी दलों की दुम पूरी तरह से आंदोलन से बंध गई। अब मुख्यमंत्री को हटाने से भी ज्यादा बड़ी मांग विधानसभा भंग करने की हो गई। एक जून को जेपी भी वेल्लूर से लौटे आए। पांच जून को उन्होंने गांधी मैदान से संपूर्ण क्रांति की हुंकार भरी।
गोविंदाचार्य आंदोलन में हर पल के सक्रिय भागीदार थे। बीच में जुलाई 1974 में उनका संघ की नागपुर बैठक में जाना हुआ। जहां उन्हें पता लगा कि उन पर संघ का अनुशासन तोड़ने का अभियोग है। इस मसले पर बड़ा बहस-मुहाविशा हुआ।
असल में आंदोलन को लेकर संघ का नजरिया शुरुआत में ‘कुछ भी नहीं’ का था। जबकि विद्यार्थी परिषद पहले दिन से सक्रिय था। जनसंघ मई में आंदोलन का हिस्सा बना। मई-जून से संघ के स्थानिक स्वयंसेवक अपने मन से इसमें कूद पड़े। इससे पहले सर संघ चालक बाला साहब देवरस ने अप्रैल के आखिर में पटना में सार्वजनिक तौर पर बयान दिया कि स्वयंसेवक भी बदलाव के आंदोलन में हिस्सा लेंगे। वे समाज के संवेदनशील नागरिक का दायित्व निभाने से पीछे नहीं रहेंगे। इससे स्वयंसेवकों को न्यायोचित आधार मिल गया। लेकिन संगठन के तौर पर संघ ने खुद को आपातकाल लगने तक आंदोलन से दूर रखा था। अकेले गोविंदाचार्य ही आंदोलन में सक्रिय थे और इन्हीं के जरिए संघ आंदोलन से जुड़ा भी रहा।
गोविंदचार्य की इकलौती भागीदारी ही नागपुर में उनकी पेशी का आधार बनी थी। हर पक्ष अपने-अपने दावे पर अड़ा था। बातचीत के आखिर में तत्कालीन सर संघ चालक बाला साहब देवरस ने स्पष्ट किया, ‘इसमें कौन सी अनुशासनहीनता हुई? गोविंद का इसमें क्या दोष है? वह तो ठीक ढंग से काम कर रहा था। जो-जो तय हुआ था, वह वही कर रहा था।’
‘अरे भाई, जिनको परिस्थिति का अंदाज लेना था, उन्होंने नहीं लिया। जिन्होंने अंदाज लिया, उन्होंने निर्णय नहीं लिया। जिन्होंने निर्णय किया, उन्होंने पालन नहीं कराया। गोविंद का दोष इसमें कहां है?’
‘ठीक है, बिना तैयारी के अखाड़े में उतर पड़े हैं। अब संकट तो आएंगे ही। आगे जो होगा देखा जाएगा।’
‘और गोविंद, तुम अभी मत जाना। बाहर तो बिलकुल भी मत निकलना। वहां पुलिस है। पुलिस कैंपस में नहीं आएगी। इतना समझ लो। हम तुम्हारे लिए व्यवस्था करेंगे। हमसे पहले मिलना, तब जाना।’
इसके बाद बाला साहब देवरस ने गोविंदाचार्य को अकेले में कहा, ‘आंदोलन में लगे रहना। गिरफ्तार नहीं होना। और सुनो, अगर गिरफ्तार हो गए, तो ऐसा भी मौका पड़ सकता है, जिसमें मुझे कहना पड़े कि गोविंद का वो निजी निर्णय था, संघ का इससे कोई लेना देना नहीं है। वो अब प्रचारक नहीं है। लेकिन तुम समझकर चलो कि तुम प्रचारक रहोगे। गलतफहमी तुमको नहीं होनी चाहिए।’
और एक सवाल भी किया, ‘अच्छा यह बताओ, इस आंदोलन से तुम निकालना क्या चाहते हो?’
गोविंदाचार्य का जवाब था, ‘आजादी के बाद इतने साल बीत गए, वही व्यवस्थाएं चल रही हैं, अंग्रेजों के समय में जो थीं। इसे बदलना चाहिए। यह व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन का है। इसमें केवल राजनीति नहीं है।’
तब बाला साहेब ने कहा, ‘देखो, इतना सब नहीं निकलेगा इसमें से। सोशल डिटरंट निकल आए, किसी तरह से, तो मान लेना कि आंदोलन सफल है। सामाजिक दंड शक्ति का अंकुश राजसत्ता पर होना चाहिए, इसका कुछ सोचो। बाकी इसमें से क्या निकलेगा, यह देखना पड़ेगा। संकट आएंगे।’
इतना समझाने के बाद उन्होंने कहा, ‘तुम अपना सामान तैयार रखना। देर रात कोई स्वयंसेवक तुम्हारे पास आएगा। वह तुमको जबलपुर की बस पर बैठा देगा। उसके पहले किसी कीमत पर तुम संघ परिसर से बाहर मत जाना।’
रात के करीब 11:30 बजे एक स्वयंसेवक गोविंदाचार्य के कमरे में पहुंचा। उसने साइकिल पर बिठाकर उनको बस स्टैंड छोड़ दिया। वहां से महाराष्ट्र परिवहन की बस पकड़ वह जबलपुर पहुंचे। फिर जबलपुर से अगले दिन ट्रेन पकड़कर पटना।
***

- जेपी-गोविंदाचार्य की पहली मुलाकात
- जेपी ने पूछा, ‘अब बताओ कि तुम क्या करते हो?’
- गोविंद ने फिर दुहराया, ‘हम तो प्रचारक हैं।’
- ‘अरे प्रचारक तो हो, पढ़ाई-लिखाई कितनी हुई है?’
- ‘एमएससी किया है। रिसर्च स्कॉलर भी रहे। थोड़ा पढ़ाने को मिल गया था चार महीने। लेकिन छोड़-छाड़कर हम प्रचारक हो गए।’
- ‘अच्छा, कितनी तनख्वाह मिलती है?’
- ‘हम लोग के यहां तनख्वाह वगैरह नहीं मिलती है।
चूंकि गोविंदाचार्य जेपी और संघ के बीच सूत्र का काम कर रहे थे, इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि दोनों की पहली मुलाकात कब और कैसे हुई, जिसने दोनों के बीच मजबूत समझ विकसित की। जयप्रकाश नारायण से गोविंद की पहली मुलाकात 1967 में हुई थी। उस वक्त बिहार सूखे की चपेट में था। सूखा पीड़ितों की मदद के लिए संघ ने अकाल पीड़ित सहायता समिति बनाई गई थी। पशुओं पर बड़ा संकट था। नवादा में समिति का चारा केंद्र था और हैंडपंप भी लगवाते थे। यहीं से आपदा राहत के मद में संग्रह की गई सामग्री बांटी जाती थी। समिति के खाते में 9-10 लाख रुपये इकट्ठा हुआ था। उसी से चारा आदि का इंतजाम किया गया। दूसरी तरफ अकाल पीड़ितों के बीच बिहार रिलीफ कमेटी काम कर रही थी। उनका बड़ा काम था। देश-विदेश से सहायता का केंद्र यही था।
प्रचारक के तौर पर तो गोविंद संगठन के लोगों से तो मिलते ही थे, निजी तौर पर उनकी दिलचस्पी औरों से मिलने, उनका काम देखने की रहती थी। इसी धुन में एक दिन वह जेपी पास भी पहुंच गए। दोनों की यह पहली मुलाकात थी।
औपचारिक परिचय के बाद गोविंदाचार्य ने जेपी से प्रार्थना की, ‘आपका बड़ा काम है। एक बार अंदर घूमना चाहता हूं। जिससे पूरे काम को जाना-समझा जा सके।’
जेपी ने पूछा, ‘तुम क्या करते हो?’
गोविंदाचार्य बोले, ‘संघ का प्रचारक हूं।’
इससे जेपी को कौतूहल हुआ, ‘तुम लोग क्या करते हो?’
‘हम लोग भी कुछ रिलीफ करते हैं।’
‘अच्छा, तुम लोग भी रिलीफ करते हो?’ हैरानगी भरा सवाल था।
‘हां।’
‘अच्छा जाओ, घूमकर आओ पूरा।’ और एक आदमी को गोविंदाचार्य के साथ भेज दिया।
वह करीब एक घंटे तक रिलीफ कमेटी के परिसर में घूमे। लौटने पर जेपी ने कहा, ‘आओ बैठो। अब बताओ कि तुम क्या करते हो?’
गोविंद ने फिर दुहराया, ‘हम तो प्रचारक हैं।’
‘अरे प्रचारक तो हो, पढ़ाई-लिखाई कितनी हुई है?’
‘एमएससी किया है। रिसर्च स्कॉलर भी रहे। थोड़ा पढ़ाने को मिल गया था चार महीने। लेकिन छोड़-छाड़कर हम प्रचारक हो गए।’
‘अच्छा, कितनी तनख्वाह मिलती है?’
‘हम लोग के यहां तनख्वाह वगैरह नहीं मिलती है। हम लोग अपना महीने भर का खर्चा लिखते हैं, एक-एक तारीख के अनुसार। उसे ऑफिस में जमा किया जाता है। उससे जितना पैसा होता है, वह मिल जाता है।’
‘कितना होता है?’
‘कभी 45 रुपये हो गया तो कभी 30 रुपये रह गया। कम से कम में निभ जाए, ऐसी कोशिश करते हैं।’
‘अच्छा, अकाल में तुम लोग क्या कर रहे हो?’
‘हमलोग चारा केंद्र चला रहे है और एक हैंडपंप लगवाने का काम भी करते हैं।’
‘कहां करते हो?’
‘नवादा जिले में।’
‘हम चाहें तो देख सकते हैं?’
‘इससे अच्छा हमारे लिए क्या सौभाग्य होगा। हम खुद ही कहना चाह रहे थे, लेकिन संकोच हो रहा था।’
जेपी ने कहा, ‘हम जानते हैं बबुआ जी को, हम देखना चाहेंगे। तुम्हारे यहां कितना लोग स्टाफ है?’
गोविंद ने कहा, ‘कोई स्टाफ नहीं है।’
‘स्टाफ नहीं है तो ऑफिस कहां रखे हो?’
‘ऑफिस तो संघ कार्यालय की एक आलमारी है।’
‘ऑफिस सेक्रटरी कौन है?’
‘वे हमारे लखन कुमार श्रीवास्तव जी हैं।’
‘वे क्या करते हैं?’
‘वे एलआईसी में नौकरी करते हैं।’
‘तो इसमें क्या करते हैं?’
‘दिन में उनके पास करीब पांच घंटे का समय होता है। एलआईसी से छुट्टी होने पर वह कार्यालय चले आते हैं। दफ्तर की आलमारी खोलते हैं। फाइल वगैरह निकालकर पत्राचार करते हैं। पैसे व चेक का हिसाब देखते हैं। रात आठ बजे लौट जाते हैं। हमारा काम इसमें हो जाता है।’
‘अच्छा, पैसा कैसे इकट्ठा करते हैं?’
‘चिट्ठी लिखते हैं और बैठकों में बताया जाता है, इससे लोग भेज देते हैं।’
‘यह सब इकट्ठा करने में कितना खर्च है?’
‘इकट्ठा करने में क्या खर्च होगा। कुछ नहीं खर्च होता है।’
‘क्यों, रसीद वगैरह?’
‘रसीद थोड़ी बहुत है। बाकी लोग कपड़ा आदि भेजते हैं। हम पैड पर लिखकर दे देते हैं कि इतना बोझा कपड़ा आया है।’
‘तब मैं जरूर जाऊंगा देखने के लिए।’ आखिर में सवालों से संतुष्ट हो जेपी ने कहा।
यह शायद पहली बार हुआ था जब जेपी को संघ, उसके काम के बारे में विस्तार से जानकारी मिली थी। इससे पहले वह प्रांत संघ चालक कृष्ण बल्लभ प्रसाद नारायण सिंह उर्फ बउवा जी से मिलते थे, लेकिन उन दोनों का स्तर अलग था। दोनों के बीच इस तरह का अनौपचारिक संवाद नहीं हुआ रहा होगा।
लौटने पर गोविंद ने प्रांत प्रचारक बउआ जी को बताया, ‘जेपी जी का तो बड़ा काम है।’
‘तुम गए थे क्या?’
‘हां।’
‘अच्छा, क्या बात हुई।’
गोविंद ने उनको पूरा बता दिया।
इस पर बउवा ने कहा, ‘तो उनकी डेट भी तय करके आते।’
गोविंद ने जवाब दिया, ‘आप बात कर लीजिए, हम तो छोटे पड़ेंगे। उनसे बात हो गई है।’
इसके बाद बउवा जी ने जेपी से मुलाकात कर तरीख आदि तय की। उस दिन संघ के प्रांत प्रचारक, संघ चालक वहां मौजूद थे। सात आठ लोग और थे। जेपी ने सबसे एजूकेशन, क्वालीफिकेशन वगैरह के बारे में पूछा।
इसके बाद बिहार छात्र आंदोलन, जेपी आंदोलन व आपातकाल के दौरान गोविंदाचार्य की जेपी से घनी नजदीकी रही। विधानसभा घेराव में हुई हिंसा से नाराज जेपी को मनाने का काम गोविंदाचार्य ने ही किया था। बाद में वही जेपी के साथ संघ की तरफ से संवाद कायम करने के इकलौते सूत्र रहे।
एक दिलचस्प वाकया है फरवरी 1975 का। आंदोलन की रणनीति पर चर्चा के लिए इलाहाबाद के जार्ज टाउन स्थित घर पर बैठक थी। इसमें जय प्रकाश नारायण के साथ नानाजी देशमुख, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, डॉक्टर कैलाश पति, गोविंदाचार्य सरीखे लोग थे। वहां पर विशेष बात हुई। सुबह पहले बैठक हुई। फिर सबने भोजन किया। इसके बाद सोचा गया कि सब थोड़ा विश्राम कर लें, उसके बाद दुबारा बैठक होगी।
घर में इतनी जगह थी नहीं कि सबको अलग-अलग बेड मिल सके। जेपी को बेडरूम में सुला दिया गया। बाकी लोग ड्राइंग रूम में इधर-उधर लेट गए। कोई बेंच पर था तो कोई जमीन पर। थोड़ी देर में जेपी की आंख खुल गई। वह बाहर आए। देखा कि सब लोग लेटे हुए थे, एकाध नींद में भी थे। यह देखकर लौट गए। सबके जगने पर बैठक हुई। इसमें अनुभव के नाते बताया, ‘ऐसी कॉमरेडरी तो हमने कांग्रेस व सामाजवादियों में भी नहीं देखी। जिसमें कोई स्तर भेद नहीं है। स्टेटस की चेतना नहीं है।’ संघ व जनसंघ के बारे में यह बात जेपी की समझ में आपातकाल में आ गई थी।
वैसे देखा जाए तो संघ के बारे में जेपी का नजरिया हमेशा एक सा नहीं रहा। आपातकाल में तो वह संघ के सबसे बड़े पैरोकार थे। एक बार उन्होंने यहां तक कह दिया था, ‘संघ अगर फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं।’
इससे बहुत पहले भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1943-44 जेपी को पुलिस नहीं पकड़ सकी थी। वह भूमिगत हो गए थे। इस दौरान उन्होंने दिल्ली के संघ चालक हंस राज गुप्ता के घर पर शरण ली। मिसेज हंसराज गुप्ता ने उस वक्त उनकी बहुत देख-रेख की थी। बाद में 1948 में जब महात्मा गांधी की हत्या हो गई, संघ पर प्रतिबंध लग गया, तब जेपी की अगुवाई में संघ की निंदा करते हुए जुलूस निकला। वे जिस सड़क से गुजर रहे थे, वह वही सड़क थी, जिस पर हंसराज गुप्ता का घर था। वही महिला ऊपर से देख रही थी। नजर मिलने पर जेपी मुंह घुमाकर चले गए।
आपातकाल खत्म होने के बाद 23-24 मार्च 1977 को संघ से प्रतिबंध हटा। अगले दिन गोविंदाचार्य व बिहार प्रांत संघ चालक बाउवाजी, मिठाई का एक पैकेट लेकर जेपी से मिलने चरखा समिति पहुंचे।
मिलने पर गोविंदाचार्य बोले, ‘आपके कारण इतना सब हो गया। प्रतिबंध हट गया है। इसलिए आप मिठाई खाइए।’
उस समय जेपी की तबीयत बहुत खराब थी। वे केवल पुआ खा सकते थे। लेकिन खुशी में उन्होंने कहा, ‘चाहे जो हो जाए, आज मिठाई जरूर खाऊंगा।’ और जी-भरकर मिठाई खाई। इसके बाद संघ को लेकर नकारात्मक नजरिया जेपी का नहीं दिखा।
1978-79 में विद्यार्थी परिषद ने शैक्षिक परिवर्तन के लिए शैक्षिक परिवर्तन जागरण ज्योति निकाली थी। यह पटना में चरखा समिति से निकली थी। तबीयत खराब होने के बाद भी जेपी ने ज्योति जलाकर यात्रा को रवाना किया, दिल्ली के लिए। जहां लाल किला मैदान में अधिवेशन हुआ था।
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30 अक्तूबर, 1974
- तब गोविंदाचार्य ने कहा, ‘मैं समर्पण को तैयार हूं। गिरफ्तार कर लीजिए। खाली हमें थोड़ा समय दे दीजिए। एक काम है छोटा सा। साइकिल जिसकी है, उसे देना है। या तो कोई ऊपर साइकिल दे दे, या हम खुद देकर आते हैं।’
- पुलिसवाले ने कहा, ‘नहीं, नहीं, आपको जाने की जरूरत नहीं है। हम बता देंगे उनको। साइकिल की चिंता मत करिए।’
छात्र आंदोलन में गोविंदाचार्य की चुनौती दोहरी थी। उन्हें आंदोलन में सक्रिय भी रहना था और वारंट लेकर घूम रही पुलिस से भी बचना था। तो बहुत सोच-समझकर उन्होंने अपनी दैनिक दिनचर्या तय की। वह तड़के घर से निकल जाते। उजाला होने तक मुलाकातों, बैठकों का दौर चलता। इसके बाद वह दिन भर किसी के घर में रुकते। अंधेरा होने पर वह एक बार फिर सड़क पर होते थे। अक्तूबर तक ऐसे ही चलता रहा।
आठ महीने तक पुलिस को छका पाने की बड़ी वजह यह भी रही कि पटना पुलिस के पास गोविंदाचार्य की कोई तस्वीर नहीं थी। सिर्फ नाम भर था। भारी-भरकम नाम से पुलिस को लगता था कि वह संघ के कोई बहुत बड़े नेता होंगे, जबकि थे वह सामान्य प्रचारक। पुलिस की समस्या यह भी थी कि गोविंदाचार्य को खोजें कहां? संघ के लोगों से पूछते तो वहां कुछ पता नहीं चलता।
फिर भी, दो-तीन बार ऐसा भी हुआ, जब गोविंदाचार्य पुलिस के हाथ पड़ते-पड़ते बचे। दो वाकये तो किशोरी चाची के घर के हैं। किशोरी चाची जनसंघ में महिला मोर्चा से जुड़ी थीं। उनके पति दरभंगा के एडीएम थे और तीन बेटे पढ़ाई करते थे। गोविंदाचार्य लोहानी पुर में उन्हीं के फ्लैट में रहते थे।
पहली बार ऐसा हुआ कि किसी ने फोन करके बता दिया कि पुलिस छापा मारेगी। पूर्व सूचना के आधार पर वह हट गए। इससे वह पुलिस से बच गए।
दूसरा वाकया थोड़ा अजीब था। जुलाई का महीना था। आसपास की गतिविधियों को देख संदेह होता कि घर की निगरानी हो रही है। कई तरह के लोग, नए चेहरे, जो कॉलोनी में रहते नहीं थे, वह दिखते थे। एक दिन किशोरी चाची ने रात आठ बजे भोजन कराया और बोलीं, ‘गोविंद जी, आज आपको यहां नहीं रहना है। एक सप्ताह तक आइएगा भी नहीं।’
गोविंदाचार्य ने पूछा, ‘क्यों?’
उनका जवाब था, ‘अभी यह सब मत पूछिए। आप बस यहां से चले जाइए। एक सप्ताह बाद हम बुलवा लेंगे।’
किशोरी चाची का दबाव पड़ने पर गोविंदाचार्य राजी हो गए।
घर छोड़ते समय उन्होंने सावधानी बरती। वह कैंपस के मुख्य गेट से नहीं निकले। स्कूटर भी फ्लैट पर ही छोड़ दिया। पैदल ही वह कैंपस के पिछले हिस्से तक गए। जहां की दीवार से उन्होंने छलांग लगा दी। दूसरी तरफ पश्चिम लोहानी पुर की झुग्गी-झोपड़ी थी। इसके बीच से होते हुए वह जन संघ कार्यालय के नजदीक प्रो. राम खेलावन राय के घर पहुंचे।
उसी रात पूरे कैंपस को पुलिस ने घेर लिया। उनके साथ कोई मुखबिर भी था। वह बार-बार कहता कि नहीं, नहीं, इसी फ्लैट में गोविंदाचार्य रहते हैं। लेकिन पुलिस को एक बार फिर खाली हाथ लौटना पड़ा।
सप्ताह भर बाद किशोरी चाची ने गोविंदाचार्य को बुला लिया। आते ही वह बोलीं, ‘देखिए, उसी रात छापा पड़ा था। और उनमें से कोई एक था, जो बार-बार कह रहा था कि नहीं, गोविंदाचार्य इसी में हैं। पुलिस के पास पक्की जानकारी थी।’
‘जब आप मेरे घर पर नहीं मिले, तो उन्होंने बगल में प्रांत प्रचारक देव जी के घर की भी तलाशी ली। उधर से निकलने के जितने भी रास्ते थे, सबको बंद कर रखा था। केवल छोटी सी चूक उनकी या छोटा सा उपाय हम सबका रहा, जिससे आप पुलिस की गिरफ्त में आने से बच गए।’
इसके बाद किशोरी चाची चाय बनाकर लाईं। उनका फ्लैट बहुत छोटा था, ढाई कमरे का। बच्चों के साथ गोविंदाचार्य एक कमरे में रहते थे, और वो पति-पत्नी दूसरे कमरे में।
किशोरी चाची ने कहा, ‘गोविंद जी, आइए, इस कमरे में आइए। बेडरूम में एक ताखा था, भगवानजी का स्थान।’
अंदर जाने पर हमसे पूछा, ‘कोई सुगंध आ रही है।’
उन्होंने कहा, ‘हां, आ तो रही है।’
‘यह सुगंध है या दुर्गंध।’
‘सुगंध है।’
‘हमारे यहां की अगरबत्ती देख लीजिए, उसकी गंध अलग है।’ बात करते-करते किशोरी चाची एक रहस्य उजागर करने लगीं, ‘हमारी एक बुआ थीं। गुजर जाने के बाद भी वह हमारे घर का भला चाहती हैं। उस दिन वह आई थीं। मन के स्तर पर ही उनसे बात हुई। वह कह रहीं थी कि गोविंद को आज यहां मत रहने देना। उनको आज बाहर जाने को कहना। सप्ताह भर बहुत संकट है।’
‘यह उन्होंने कहा था। हम सबको उन पर बहुत विश्वास है। इसलिए बहुत विश्वास से, आपको खराब लगेगा ऐसा मानते हुए भी, मैंने कहा था कि आप बाहर चले जाओ।’
हालांकि, इस बात पर गोविंदाचार्य को ज्यादा यकीन नहीं हुआ। फिर भी, उनने किशोरी चाची को टोकना ठीक नहीं समझा।
ऐसे ही, एक बार गोविंदाचार्य मुंगेर से पटना लौट रहे थे। ट्रेन में मोकामा के नजदीक उनके पास एक अपरिचित शख्स आया और बोला, ‘आपके पीछे पुलिस लगी है। डिब्बे में ही दो लोग सवार हैं। आप कुछ तरकीब लगाइए। आप पटना जा रहे हैं, पटना में आपके स्वागत की तैयारी उनलोगों ने कर रखी है।’
वह कुछ पूछते, उससे पहले खबरची चला गया। लेकिन सचेत होने भर के लिए सूचना पर्याप्त थी। मन ही मन वह भागने की तरकीब सोचने लगे।
शाम ढलने पर ट्रेन फतुहा स्टेशन से आगे बंकाघाट के आउटर पर रुकी। इसी वक्त वह उलटी दिशा में ट्रेन से उतर गए। इससे उनका पीछा कर रहे लोगों को अंदाज नहीं लग पाया। दोनों ट्रेन में ही बैठे रहे गए। अगर बांकाघाट में उतरना न हो पाता तो ट्रेन सीधे पटना सिटी स्टेशन पर रुकती, जहां पुलिस ने पूरी तैयारी कर रखी थी।
ट्रेन छोड़ने के बाद वह पैदल ही नजदीक बांकाघाट में अपने परिचित बद्री यादव के घर पहुंचे। रात भर रुकने के बाद वह तड़के वहां से पटना के लिए निकल पड़े।
करीब आठ महीने तक पुलिस और गोविंदाचार्य में आंख-मिचौली का खेल चलता रहा। नवंबर के सचिवालय घेराव की तैयारी के सिलसिले में उनका पूरे शहर में घूमना होता। इसी दौरान जनसंघ के रामभाऊ गोड़बोले पटना आए। वह जनसंघ के कार्यालय में ठहरे थे। गोविंदाचार्य को रामभाऊ से 30 अक्तूबर को मिलना है, ऐसा तय हुआ था। मुलाकात के लिए उन्होंने अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान चुना। भंवर पोखर इलाके में, भिखना पहाड़ी के नजदीक, बाकरगंज में, एक स्वयंसेवक कलीराम के घर पर।
गोविंद अपने निर्धारित समय पर जा रहे थे। कलीराम के घर से आठ-दस घर पहले ही एक टी-प्वाइंट था। वहां पहुंचने पर गोविंदाचार्य ने देखा कि चार-पांच लोग सामने ज्वेलरी की दुकान से उतर कर उनकी तरफ आ रहे हैं। सभी सादे कपड़े में थे। थोड़ा गौर करने पर समझ में आया ये तो पुलिसवाले हैं। जनसंघ कार्यालय पर कोई मुखबिर जरूर था, जिसने मुलाकात की जानकारी पुलिस तक पहुंचा दी थी।
गली संकरी थी। गोविंदाचार्य साइकिल से उतरकर चल रहे थे। उन्होंने साइकिल घुमाई और बैठकर भागने की कोशिश की। इस पर सबने दौड़ लगा दी। सामने भी पुलिसवाले खड़े थे। वह चारों तरफ से घिर गए थे। उन्हें समझ आ गया था कि इस बार भाग निकलना नामुमकिन है।
तब उन्होंने कहा, ‘मैं समर्पण को तैयार हूं। गिरफ्तार कर लीजिए। खाली हमें थोड़ा समय दे दीजिए। एक काम है छोटा सा। साइकिल जिसकी है, उसे देना है। या तो कोई ऊपर साइकिल दे दे, या हम खुद देकर आते हैं।’
पुलिसवाले ने कहा, ‘नहीं, नहीं, आपको जाने की जरूरत नहीं है। हम बता देंगे उनको। साइकिल की चिंता मत करिए।’
उसके बाद पुलिस ने पकड़कर गोविंदाचार्य को जीप पर बिठा लिया। वहां से एसपी ऑफिस पहुंचे, जहां काफी हंगामा मचा। इससे बहुत से इंटेलीजेंस के, पुलिस के अधिकारी सब कोतवाली में आकर जम गए।
उनको वहां बिठाया गया। थोड़ी-बहुत पूछताछ भी हुई। फिर, चार बजे वहां से गया के लिए शिफ्ट कर दिया गया। सात-साढ़े बजे गया जेल में गोविंदाचार्य की आमद दिखाई गई।
- (पार्ट-2, कहानी अभी जारी है)