50 Years of Emergency: दोनों हाथ न होने वाला पत्थरबाजी, गूंगा नारेबाजी के जुर्म में कैद

26 जून 1975 का मनहूस सवेरा उदासी भरा और डरावना था। आधी रात में इमरजेंसी लगा दी गई थी। दिल्ली, पटना समेत पूरे देश में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुई थीं। आंदोलनकारी बच-बचाकर भागते रहे। हैरतअंगेज जुर्म में गिरफ्तारियां भी कीं, पुलिस ने। इस दौर को केएन गोविंदाचार्य ने कैसे देखा, कैसे भोगा, कलमबद्ध कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार रविशंकर तिवारी...

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चार महीने की जेल काटकर गोविंदाचार्य बाहर निकले। और फिर से संघ के काम में लग गए थे। जिस दिन आपातकाल लगना था, वह काशी में अपनी मां के पास थे। 25 जून की दोपहर उनको दिल्ली से खबर मिली कि देश में आपातकाल लगाने वाला है। रात नौ बजे ऑल इंडिया रेडियो से इसकी घोषणा होगी। सूचना मिलने के तुरत बाद वह घर से निकल गए। काशी से शाम की पंजाब मेल पकड़ी और रात 10-10:15 बजे पटना जा पहुंचे। स्टेशन से संघ कार्यालय न जाकर वह एक स्वयंसेवक अरुण सिन्हा के घर चले गए। वहां से उन्होंने अरुण को संघ कार्यालय भेजा। तब तक संघ कार्यालय पर रेड पड़ चुकी थी। एक-दो लोगों की गिरफ्तारी भी हुई थी।
आपातकाल से पहले तक संघ न तो जेपी आंदोलन से सीधे तौर पर जुड़ा था और न ही कोई बड़ा पदाधिकारी आंदोलनात्मक गतिविधियों से संयुक्त हुआ था। फिर भी, इसकी घोषणा होते ही शुरुआती कार्रवाई संघ पर हुई। इसकी बड़ी वजह गोविंदाचार्य और उनकी आंदोलन में सक्रियता रही। संघ के वही ऐसे इकलौते पदाधिकारी थे, जिन पर छात्र आंदोलन में ही मीसा लग गया था। आठ महीने उन्होंने पुलिस को छकाया भी था, तब जाकर कहीं वह गिरफ्त में आए थे। इसके साथ ही जमीनी स्तर पर संघ के स्वयंसेवक आंदोलन में पूरी तरह से लगे हुए थे। आंदोलन को गति देने में इनकी बड़ी भूमिका रही थी।
बहरहाल, 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हो गया था। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना था, ‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति महोदय ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है…।’
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था। जय प्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस समेत सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। जेलों में जगह नहीं बची थी।
पुलिस के दमनचक्र के बीच गोविंदाचार्य के पास गिरफ्तारी से बचने का भूमिगत होने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। पटना पहुंचने के साथ ही वह भूमिगत हो गए। इससे उनका बड़े कार्यक्रमों में शरीक होना संभव नहीं रहा। खुलेआम घूमना भी नहीं हो सकता था। यही हालत दूसरे आंदोलनकारियों की भी थी। लेकिन यह सवाल सबके सामने खड़ा था कि आगे क्या व कैसे किया जाए? 
गोविंदाचार्य ने महसूस किया कि लोग भाषण तो देना जानते हैं, लेकिन प्रवास बैठक का महत्व उनको नहीं पता। कार्यालय व कोष की समझ नहीं थी। हर आंदोलन की तरह इसमें भी नेता बहुत थे, कार्यकर्ता कम। जबकि संघ परिवार के संगठनों में कार्यकर्ता ज्यादा, नेता कम होते थे। उनको लगा कि समन्वय व नेटवर्किंग आंदोलन की सबसे बड़ी तत्कालीन जरूरत है।
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद गोविंदाचार्य ने बाहर रह गए लोगों को जोड़ना शुरू किया। इसके लिए ढूढ़-ढूढ़कर संपर्क साधा गया। पहली बैठक जून आखिर में बुलाई। फिर, जुलाई में सब दो बार मिले। हर बैठक में सात-आठ लोग ही होते थे। कोशिश यही रहती कि हर पार्टी से एक-एक लोग निजी हैसियत से बैठक में शरीक हो जाएं। प्रो. रमाकांत पांडेय उनकी तरफ से संदेश वाहक का काम करते थे।

इसी बीच सरकार ने तीन महीने तक जेल में रखने के बाद सितंबर में जेपी को छोड़ दिया गया। लेकिन उनको किसी तरह की सार्वजनिक गतिविधि में हिस्सा लेने की मनाही थी। पटना के घर में वह एक तरह से कैद कर दिए गए थे। वह एकदम तनहा थे। स्वाभाविक था कि लंबा वक्त यूं ही गुजारने से उनमें निराशा घर कर जाती। जरूरत उनको लोगों के बीच लाने की थी, जिससे उनका विरोधी तेवर कायम रखा जा सके।
पटना विश्वविद्यालय में कामर्स के प्रोफेसर रमाकांत पांडेय के साथ मिलकर गोविंदाचार्य ने एक योजना तैयार की। अक्तूबर में नवरात्र का उत्सव आने वाला था। दोनों एक दिन बचते-बचाते जेपी के पास पहुंचे और गुजारिश की कि वह नवरात्र में एक दिन देवी मां के दर्शन के लिए आएं। जगह उनको गंगा नदी के किनारे स्थित दरभंगा घाट के देवी मंदिर बताई गई। इसका एक रास्ता पटना कॉलेज के अंदर से जाता था। जेपी को इसकी माकूल वजह भी बताई गई।
गोविंदाचार्य ने कहा, ‘आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। इसके लिए हमलोगों ने एक अनुष्ठान रखा है। यह नवरात्र भर चलेगा। इस बीच आपको कहीं नहीं जाना है। मंदिर का पुजारी हर दिन आपको टीका लगाने आएगा। आखिरी दिन मंदिर चलकर दर्शन करना होगा।’
थोड़ा ना-नुकुर के बाद जेपी तैयार हो गए।
अब इन लोगों ने मंदिर के पुजारी से बात की। वह इसी बात से गदगद हुए कि जेपी को टीका लगाने को मिलेगा। नवरात्र शुरू होने के बाद उन्होंने इसको निभाया भी, वह हर रोज सुबह जाते। जेपी को तिलक लगाते और मंदिर लौट जाते। ऐसा करते-करते नवमी आ गई।
इस बीच रमाकांत ने हर जगह सूचना देनी शुरू कर दी कि नवमी को जेपी दरभंगा घाट आने वाले हैं। वह पूर्णाहुति करेंगे। उनकी पूजा का समापन है। सबको आना है। सूचना इस तरह भेजी जा रही थी कि पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी। ठीक नवमी के दिन रमाकांत पांडेय जेपी को लेकर मंदिर में पहुंचे। रास्ता पटना कॉलेज का चुना। चूंकि सबको पहले से मालूम था, तो पटना कॉलेज में उनके घुसते छात्रों की भीड़ जुट गई। उत्साह में सब नारेबाजी करने लगे। बड़ी संख्या में लोगों के साथ जेपी मंदिर पहुंचे, पूजा की और लौट गए। योजना के अनुसार इतना ही करना भी था। यह जताने, जेपी को यकीन दिलाने कि आंदोलन में अब भी जान है। आपातकाल के दमन से बात बहुत इधर-उधर नहीं हुई हैं।

यूं ही, नवंबर में संघ के भाऊराव देवरस का पटना आना हुआ। उनका जेपी से मिलना जरूरी था। लेकिन पुलिस भाऊराव को ढूंढ़ रही थी। खुले में मिलना संभव नहीं था। तब गोविंदाचार्य ने एक व्यवस्था की। मुलाकात के एक हफ्ते पहले से जेपी को रोज सुबह की सैर पर भेजा जाने लगा। लौटते समय किसी मित्र के यहां रुककर वह चाय पीते। शाम को ही जेपी को बता दिया जाता कि किसके यहां चाय पीनी है। सत्यनारायण सहाय गाड़ी वगैरह का इंतजाम करते। जेपी सुबह पोलो मैदान जाते, वहां से गाड़ी घुमाकर बोरिंग रोड होते हुए लौटते थे। बीच में किसी परिचित के घर रुककर वह चाय पीते थे।
गोविंदाचार्य ने भाऊ राव को एक दिन पहले आने का संदेश भेजा। तय हुआ कि जिस घर में जेपी का चाय पीनी है, वहां भाऊराव देवरस को पहले पहुंचा दिया जाए। क्योंकि जेपी के साथ पुलिस का बहुत तामझाम होता था, सीआईडी वाले भी रहते थे। लेकिन इनमें से कोई घर के अंदर नहीं आता है।
भाऊराव देवरस पंजाब मेल से पटना आए। सुबह-सुबह उनको मोटर साइकिल से बोरिंग रोड के उस घर पर छोड़ा गया, जहां जेपी को चाय पीनी थी।
तयशुदा समय में बाद जेपी भी आ गए। सारे पुलिस वाले, सीआईडी वाले बाहर थे। दोनों ने आधे घंटे-चालीस मिनट बातचीत की। फिर, वह अपने तामझाम के साथ वापस निकल गए। उसके पंद्रह मिनट बाद भाऊराव भी एयरपोर्ट के लिए सुरक्षित निकल गए, वापसी के लिए।

आपातकाल में पुलिस का दमन चरम था। फर्जी मामलों में गिरफ्तारियां आम थीं। बंदियों को प्रताड़ना भी खूब दी गई। मसलन, उत्तर प्रदेश के बरेली में एक स्वयंसेवक वीरेंद्र अटल थे। उनको पुलिस पकड़ ले गई। संघ के प्रचारकों के बारे में पूछते-पूछते उनको खूब मारा-पीटा। यहां तक कि उनका नाखून ही उखाड़ लिया। ऐसे ही, वाराणसी के जवाहर मिश्र को तो थाने में ले जाकर कुत्ते से कटवाया गया। जवाहर भी पुलिस को प्रचारकों का पता नहीं बता सके थे। वह बताते भी कैसे, उनको तो मालूम ही नहीं था कि कौन कहां है। इस तरह के बहुत से मामले आपातकाल में सामने आये थे।
दमन का दूसरा रूप झूठे मामलों में फंसाने का रहा। उस वक्त ऐसे मामलों की भरमार थी। इसमें बहुत से लोग ऐसे थे, जिन्हें देखकर ही झूठ पकड़ में आ जाती। इलाहाबाद में एक प्रोफेसर रघुवंश के साथ हुआ वाकया इसकी नजीर है। रघुवंश के दोनों हाथ नहीं थे। खुद से वह खाना भी नहीं खा सकते थे। एक दिन पुलिस पकड़ ले गई। मीसा में बंद कर दिया। आरोप लगा कि वह पत्थर चला रहे थे। तीन महीने तक जेल में पड़े रहे। अदालत में वह जब पेश किए गए तो कहा, ‘काश! मैं ऐसा कर पाता। मेरी तो स्थिति ही नहीं है।’ कोर्ट ने प्रशासन को तगड़ी झाड़ लगाई, कि यह क्या है, आपातकाल में ऐसी दबंगई कर रहे हो, तुम लोग? फिर, उनको जमानत मिल गई।
एक वाकया पटना के नौबतपुर के तपेश्वर के साथ हुआ। लोग उनको पटेश्वर गांधी कहते थे। पुलिस ने उनको पकड़ लिया। पेशी पर पटेश्वर ने कहा, ‘मैं बड़ा खुशकिश्मत होता कि मेरे ऊपर जो आरोप लगे हैं वह सही होते।’
जज ने पूछा, ‘क्या हुआ?’
‘हुजूर, आप चलिए या किसी को भेज दीजिए।’
‘क्यों?’ जज का अगला सवाल था।
‘हमारा इलाका नौबतपुर है। नौबतपुर में रेलवे लाइन ही नहीं है। हमारे ऊपर आरोप है कि हम नौबतपुर में रेलवे लाइन उखाड़ रहे थे। आरोप ठीक होने पर अच्छा था कि हमारे यहां भी रेलवे लाइन होती।’
चिपलून में एक स्वयंसेवक को बंद कर दिया गया था। इस आरोप में कि उसने इंदिरा गांधी मुर्दाबाद का नारा लगाया है। जबकि हकीकत में वह गूंगा था।

1974-77 के बीच गोविंदाचार्य मानसिक रूप से विरोध की अवस्था में ही रहे। भूमिगत होने के बाद भी उन्होंने हर जिले का दौरा किया। जिला स्तर पर छोटी-छोटी बैठकें कीं। इससे जमीनी स्तर के आंदोलनकारियों से संवाद बना रहता था। इस बीच कई वाकया ऐसे भी आए, जब वह पुलिस के हाथ चढ़ते-चढ़ते बचे। एक दिलचस्प कहानी गया की है।
गया में फल्गू नदी के किनारे खादी ग्रामोद्योग संघ का एक स्टोरेज था। वहां पर आंदोलनकारियों की बैठक रखी गई थी। उसमें लालू प्रसाद यादव, कुमार प्रशांत, जानकी बहन, राम सुंदर दास आदि थे। संघ की तरफ से गोविंदाचार्य के साथ सरजू राय थे।
गोविंदाचार्य व सरजू राय पटना से रेलगाड़ी से निकले। स्टेशन पर उनको लगा कि वहां पुलिस पहले ही मौजूद है। उन्होंने सरजू राय से कहा, ‘आप ट्रेन के अगले डिब्बे में बैठिए, हम पीछे बैठते हैं। इससे अगर एक पकड़ा गया तो दूसरा बचा रहेगा।’
योजनानुसार गोविंदाचार्य पिछले डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर जाकर लेट गए। उसी डिब्बे में आंदोलन के दूसरे लोग भी बैठे थे। इन सबको बैठक में हिस्सा लेना था। लेकिन इनमें से अधिकांश का व्यवहार ऐसा था, जैसे वह किसी पिकनिक पर जा रहे हों। उनको अंदाजा नहीं था कि समय आपातकाल का है। आपस में वह बातचीत भी बैठक की ही कर रहे थे।
गया रेलवे स्टेशन पर इंटेलीजेंस, पुलिस के लोग थे, लेकिन इन लोगों को इस सबकी कोई फिक्र नहीं थी। सब अपनी मस्ती में थे। गया रेलवे स्टेशन से निकलने पर गोविंदाचार्य सरजू राय से मिले। उन्होंने कहा भी, ‘देखो यार, ये लोग बड़ी मुसीबत खड़ी देंगे।’
सरजू राय ने भी जवाब दिया, ‘हां, सच में बड़ी गड़बड़ है।’
खैर, बैठक स्थल पर गोविंदाचार्य सबसे पहले पहुंचे। रास्ते की धमाचौकड़ी से उनको अहसास हो गया था कि पुलिस पक्का छापा मारेगी। तो वहां पहुंचने पर सबसे पहले उन्होंने भागने की जगह तलाशी। अंदर जाकर मुआयना किया। बड़ा कैंपस था, कई कमरे थे। अंदर जहां भोजन बनता था, वहां लकड़ी का गट्ठर रखा था। गोविंदाचार्य उसके ऊपर चढ़ गए। आगे दीवार का ऊपरी हिस्सा था, जिस पर कांटेदार तार लगी थी। इसमें एक जगह से निकलने की थोड़ी गुंजाइश दिखी। दूसरी तरफ फल्गू नदी थी। पाट पर बालू ही बालू था। गोविंदाचार्य को यही एक रास्ता कूदकर भागने का सबसे महफूज लगा। बालू होने से चोट लगने की आशंका कम थी।
पूरी तसल्ली कर गोविंदाचार्य लौटे। किसी को कुछ नहीं बताया। तब तक वहां दूसरे लोग पहुंच गए थे। समय दोपहर करीब 11:30 बजे का था। सभी ने कहा कि अभी भूख लगी है। पहले चूड़ा-दही खा लेते हैं। मीटिंग बाद में कर ली जाएगी।
लेकिन खतरे की आशंका को देखते हुए गोविंदाचार्य का आग्रह जल्दी बैठक करने का था।
तब किसी ने तंज कसा, ‘गोविंद जी, आप बेकार में डरते हैं। यहां कुछ नहीं होगा। आराम से बैठिए।’
इस बीच खाने के पत्तल वगैरह लगा दिए गए। गोविंदाचार्य ने पत्तल उठाया और निकास की जगह की तरफ जाकर बैठ गए। जैसे ही चूड़ा-दही-चीनी परोसा गया, वैसे ही परिसर के छोटे दरवाजे से एक सिपाही अंदर घुसा। गोविंदाचार्य खट से खड़े हो गए और कहा, ‘चलिए भागिए। पुलिस आ गई है। जिसको बाहर भागना है वह हमारे साथ आए। हम जा रहे हैं।’ लालू प्रसाद यादव, रामशंकर दास समेत दूसरे लोग उनके पीछे भागे। सरजू राय हाथ में हवाई चप्पल उठाए भाग रहे थे। कई लोगों के शरीर पर पूरा कपड़ा नहीं था। कुछ नहाकर गमछा पहनकर खाने बैठे थे, तो उसी में भागे। कोई बनियान ही पहने हुए था।
जो कूद सके, वो 12-13 लोग थे। सभी थोड़ी दूर तक भागते रहे। इनको देख स्थानीय जनों से समझा कि ये लोग जुआ खेल रहे थे। पुलिस ने दौड़ा लिया है। उनको आशंकित देख गोविंदाचार्य ने बताया, ‘देखो भाई, हम लोग आंदोलनकारी हैं। पुलिस दौड़ाई है, इसलिए बचकर निकल रहे हैं।’
इसके बाद उनका रुख बदल गया। लोगों ने बहुत सहयोग किया। जिसके पास चप्पल नहीं थी, उसे चप्पल दे दिया। एक को कुर्ता दिया, एक को लुंगी दी।
गोविंदाचार्य को पूरा इलाका मालूम था। वह बुनकरों का मानपुर इलाका था। संघ के स्वयंसेवक खड़ग सिंह व मुन्नी लाल इसी इलाके में रहते थे। वह सबको लेकर इनके पास पहुंचे। जहां से पकड़े जाने का डर इन लोगों को नहीं था।
मुन्नी लाल के यहां बैठने के बाद आगे की रणनीति पर चर्चा हुई। गोविंदाचार्य ने कहा, ‘देखिए हम लोग यहां से निकल रहे हैं। शाम को गया रेलवे स्टेशन के सामने वाले होटल के काउंटर पर खबर रहेगी। वहां शाम को पांच बजे मिलेंगे। सब अपने-अपने हिसाब से जाइए। और हां, न बाजार की तरफ से जाइएगा, न ही साथ-साथ। पुलिस से बचने के लिए अच्छा रहेगा।’
पूरी रणनीति तैयार करने के बाद उन्होंने मुन्नी लाल को पुलिस स्टेशन भेजा, ‘जाओ देखकर आओ, कितने लोग अंदर हैं। शकल सूरत देखना कि दाढ़ी है या नहीं। मोटा है या पतला है। क्योंकि तुम तो किसी को जानते नहीं हो। हमारे पास इसकी खबर लाइए, तब हम लोगों को अंदाज लगेगा कि कितने लोग पकड़े गए हैं।’
मुन्नी लाल के वापस आने पर पता चला कि 35 में से 18 लोग पकड़े गए हैं। इसमें अधिकांश सर्वोदय के लोग थे। इसके बाद मुन्नी लाल ने सबको भोजन कराया। शाम को गोविंदाचार्य स्टेशन पर पहुंचे। वहां दो-चार लोग ही मिले। इस पर उन्होंने कहा, ‘अब ऐसे तो बैठक हो नहीं पाएगी। पटना पहुंचिए तो एक सप्ताह में बैठक करेंगे।’ और सब लौट गए।
दूसरा वाकया औरंगाबाद जिले का है। संघ के पुराने स्वयं सेवक राम रेखा सिंह ने बैठक का इंतजाम किया था। वह वहां शिशु मंदिर चलाते थे। इसकी अगुवाई गोविंदाचार्य को ही करनी थी। बैठक शुरू ही हुई थी, तभी पुलिस पहुंचने की सूचना मिली।
तब गोविंदाचार्य ने कहा, ‘आप लोग बैठक चलाइए और आधे घंटे में खत्म कर लीजिए। मैं अब निकलने की कोशिश करता हूं। आप लोग मेरे साथ मत आइए। बस एक-एक करके बाहर निकलिये।’
ऐसा बोलकर वह अंदर घर के किचन में चले गए। महिलाएं वहां खाना बना रही थीं। गोविंदाचार्य जगह देख कोने में दुबक गए। तब तक पुलिस भी अंदर आ गई थी। इसके बाद एक-एक लोग जाने लगे।
पुलिस अधिकारी ने पूछा, ‘अरे ओ, गोविंदाचार्य कहां गया?’
किसी ने जवाब दिया, ‘आपने देखा नहीं, अभी तो बाहर निकले हैं।’
‘क्या, चला गया?’ कड़क आवाज में अधिकारी बोला।
‘हां। अभी तो निकले हैं।’ मासूम सा जवाब मिला।
आश्वस्त होकर अधिकारी बाहर भागा। मौका देख गोविंदाचार्य भी घर के पिछले हिस्से से सड़क पर निकल गए। थोड़ा आगे चलने पर टोल दिखा। वहां भी पुलिस की एक गाड़ी खड़ी थी। कंधे पर गमछा रखे पैदल टहलते हुए वह इस बाधा को भी पार कर गए। आगे एक ट्रक से वह सहसाराम पहुंचे। वहां से ट्रेन से आरा और पटना।
एक अन्य वाकया गोपालगंज का है। शहर के बस स्टैंड पर पहुंचने से पहले संयोग से उनको एक कार्यकर्ता मिल गया। उसने बताया कि बस स्टैंड पर बड़ी संख्या में पुलिस मौजूद है, पहले ही उतर जाइए। गोविंदाचार्य बस स्टैंड के करीब एक किमी पहले ही उतर गए। इसके थोड़ी देर जहां उन्हें ठहराया गया था, वहां छापा पड़ा। गोविंदाचार्य दूसरी जगह चले गए। जब पुलिस लौट गई तो जो दिशा-निर्देश, आंदोलन का साहित्य वगैरह देना था, उसे देकर वह वहां से उलटी दिशा में निकल गए।

भूमिगत रहते हुए गोविंदाचार्य ने जो दूसरा काम किया, वह लोकवाणी नाम की पत्रिका के प्रकाशन का था। इसमें आंदोलन की रणनीति, उसके संदेश होते थे। संघ के अपने नेटवर्क से वह इसे लोगों तक पहुंचाने में अमूमन कामयाब भी रहे।
फिर भी, पुलिस की छापेमारी का संकट हर वक्त रहता था। इससे छपाई मशीन के साथ जगह लगातार बदलती रहती, लेकिन कई बार पुलिस ने मशीन के साथ प्रकाशित सामग्री भी जब्त कर ली थी। कई कार्यकर्ता गिरफ्तार भी हो गए थे।
पुलिसिया कार्रवाई से तंग आकर गोविंदाचार्य ने अपनी रणनीति बदली। आलमगंज थाने के बगल से गली थी। इस पर पीछे की तरफ एक कॉलोनी थी। इसी कॉलोनी में एक घर किराए पर मिल गया। इसको छापाखाना बना दिया। थाने के बगल की जगह सबसे सुरक्षित थी। सबसे ज्यादा, करीब पांच महीने नवंबर 75 से मार्च-अप्रैल 76 तक लोकवाणी यहीं से प्रकाशित हुई।
बिहार में सरकारी दमन से लगभग टूट चुके आंदोलन को संगठित करने में संघ की पृष्ठभूमि गोविंदाचार्य के काम आई। असल में, कार्यकर्ता, कार्यालय, कोष और कार्यक्रम पर संघ का खास आग्रह रहता था। बैठक, प्रवास, संवाद व टीम वर्क कार्यशैली का अहम हिस्सा थे। संघ का प्रचारक होने के नाते इस सबका प्रशिक्षण गोविंदाचार्य को पहले से ही था। इसे आपातकाल में बड़े फलक पर आजमाने का उनको मौका मिला। उनके लिए जेपी आंदोलन प्रयोगशाला साबित हुआ। इसने उनको बहुत कुछ सीखने व समझने का मौका दिया।
एक चीज उनकी समझ में आई कि संघ परिवार के संगठनों से जो लोग हैं, उनकी शब्दावली अलग है। उनके आपसी संवाद, उनका मूल्य बोध यह सब अलग है। इसमें क्या होता था कि आपसी अविश्वास, अनावश्यक टीका-टिप्पणियां, यह सब ज्यादा होते थे। अपनी-अपनी विचारधारा के संगठनों के प्रति अति-अभिमान भी था। इससे दूसरों से संवाद करने, विश्वास की स्थिति नहीं बन पाती थी। ऐसे में आगे की बात कैसे हो? गोविंदाचार्य की इसमें बढ़त रही। अनुभव से उनको पता था कि सभी जगह अच्छे लोग हैं, शैली थोड़ी अलग है। व्यापक होती इसी समझ से उन्होंने अपने स्तर पर आंदोलन को धार दी।

  • (पार्ट-3, कहानी अभी जारी है)

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