नई दिल्ली। बिहार का वर्तमान जितना स्याह है, अतीत इसका उतना ही खूबसूरत रहा है। कभी यह धर्म-आध्यात्म की भूमि रहा है। पूरी दुनिया को अपनी वैचारिकी से झकझोरने वाले जैन और बौद्ध धर्म के प्रणेता महावीर जैन और गौतम बुद्ध यहीं से थे। रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि की भूमि बिहार ही थी। सिख धर्म गुरु गोविंद सिंह ने धर्म ध्वजा यहीं से फहराई।
वह बिहार ही है, जिसने दुनिया को पहला गणराज्य दिया। पहला बड़े साम्राज्य के बीज भी यहीं पर पनपे। दुनिया को अर्थनीति, राजनीति व कूटनीति का पाठ पढ़ाने वाले आचार्य चाणक्य की जन्मभूमि और कर्मभूमि यही रही। देश को नालंदा सरीखा विश्वविद्यालय बिहार की देन है।
आजादी के आंदोलन की बिहार उर्वर भूमि रही। अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की बगावत के दौरान बिहार में जो हलचल रही, उसकी अगुवाई वीर कुंवर सिंह ने की। भारत में सत्याग्रह का पहला प्रयोग महात्मा गांधी ने चंपारण से किया। सहजानंद सरस्वती ने यहीं से किसान आंदोलन की हुंकार भरी।
साफ है कि बिहार का अतीत उज्ज्वल रहा है। लेकिन मौजूदा दौर में इसकी धरती जातीय खांचों में बंटी हुई है। कभी अर्थ और चेतना के लिए मशहूर बिहार से पलायन की मार झेल रहा है। बावजूद इस सबके, बिहार आज भी बुद्धिमत्ता में आगे है। अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है। भावनाओं से ओत-प्रोत किसी के मदद करने में बिहार आगे है। लेकिन हैरानगी इस पर है कि सबसे उर्वर जमीन का मालिक इस राज्य की गिनती बीमारु राज्यों में होती है। इसकी वजहें भी अज्ञात नहीं हैं। मूल इसका सियासत में है, लेकिन यहां आज बात इसकी नहीं, बाहर से आए उन नेताओं की है, जिन्हें बिहार ने अपनाया ही नहीं, सियासत की राह भी सरपट की।
इसमें बड़ा नाम दिवंगत जॉर्ज फर्नांडिस का है। मूलतः कर्नाटक के रहने वाले जार्ज की सियासी राह बिहार ने तैयार की। इन्होंने मुजफ्फरपुर, नालंदा और बांका लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया। वह सात बार बिहार से सांसद बने। 1977, 1989, 1991,1996, 1998, 1999, 2004 में वह बिहार से लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे।
शरद यादव मध्य प्रदेश से आये और बिहार के ही होकर रह गए। 1991,1996 व 1999 में उन्होंने मधेपुरा का प्रतिनिधित्व किया। 2004 में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने शिकस्त दी, लेकिन 2009 में वह फिर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे। पूरे सियासी सफर में बिहार ने कभी उनको बाहरी माना ही नहीं। बहुत से लोगों को भ्रम था कि वह मूलतः बिहार से ही हैं।
नाम और भी हैं, जिनके सियासी सफर का अहम पड़ाव बिहार बना। आजादी के बाद से ही बिहार देश भर के नेताओं की सियासी जमीन तैयार करता रहा। आजादी से पहले हैदराबाद में जन्मीं सरोजिनी नायडू बिहार से चुनी गई। बाद में उनको उत्तर प्रदेश से देश की पहली महिला राज्यपाल बनीं। जेबी कृपलानी पहली बार भागलपुर के प्रतिनिधि बनकर 1953 में लोकसभा पहुंचे। मीनू मसानी, मधु लिमए की कर्म भूमि बिहार बनी। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का परिवार बिहार में ही रह रहा था और यहीं से उन्होंने छात्र राजनीति शुरू की।
संबंध निभाने में बिहार का जोड़ नहीं
संबंधों में बिहार के लोग दिमाग से ज्यादा दिल का प्रयोग ज्यादा करते हैं। भावनाओं से ओत-प्रोत किसी भी व्यक्ति की मदद करने के लिए आगे आने में कोई गुरेज नहीं करते। जहां भी नाइंसाफी दिखी, वहां वह आगे बढ़कर मोर्चा संभाल लेते हैं। तभी बिहार बड़े जन आंदोलनों की उर्वर जमीन बन सका। कभी आर्थिक तौर पर मजबूत रहे बिहार के धनबाद, झरिया सरीखे शहरों में दक्षिण भारत से भी लोग आकर बसे और यहां के आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभायी। इसी का रिफ्लेक्शन वोटिंग में भी दिखता है।
भारतीय जनसंचार विभाग के क्षेत्रीय निदेशक डॉक्टर आनंद प्रधान का कहना है कि बिहार हमेशा से चेतना का केंद्र बिंदु रहा है। भारत ही नहीं, विश्व के लिए ज्ञान का केंद्र के रूप में बिहार की भूमि प्रसिद्ध रही है। जहां महात्मा बुद्ध को ज्ञान मिला, जहां से चाणक्य जैसे महान व्यक्ति, डा. राजेन्द्र प्रसाद विद्वान स्वतंत्रता सेनानी पैदा हुए, वहां के लोगों को जातिगत राजनीति के केंद्र तक समेटना गलत होगा।
डा. प्रधान बताते हैं कि अधिकांश जन आंदोलनों की पृष्ठभूमि बिहार रही है। बिहार कभी आर्थिक जगत में सर्वश्रेष्ठ था। यहां बाहर से आकर लोग बसते थे, लेकिन धीरे-धीरे बिहार से आर्थिक स्रोत कम होने लगे और बिहार के लोग ही बाहर जाने को मजबूर हो गये। आज बिहार के लोग पूरे देश में जगह अपनी ख्याति को बिखेर रहे हैं।
जाति तो पहले भी थी, जातीय चेतना वर्तमान की उपज
ईश्वर शरण डिग्री कालेज के प्राचार्य डा. आनंद शंकर सिंह का कहना है कि जाति तो पहले भी थी, लेकिन खुलकर नहीं थी। कांग्रेस में सवर्णों का कब्जा था। कांग्रेस के वोटर ब्राह्मण दलित, मुस्लिम थे। पिछड़ी जाति के लोग लोहिया की तरफ थे। समाजवादी आंदोलन धीरे-धीरे बिखरने लगा और यह जातिगत पार्टियों में तब्दील होता चला गया।
समाजशास्त्री डॉ. विकास मानते हैं कि सब भावनाओं का ही खेल है। तभी बिहार में ऊंची जातियों को छोड़ दूसरी पिछड़ी व दलित जातियों की राजनीतिक पार्टियां बन गई हैं। बिहार में लालू प्रसाद पर कितने घोटालों के आरोप लगे, उनके मतदाताओं पर इसका कोई असर नहीं है। उनके कारण कितना बिहार पिछड़ा, यह कोई नहीं जानना चाहता। उनको सिर्फ इससे मतलब है कि लालू प्रसाद उनकी बिरादरी के हैं।
डा. विकास का कहना है कि जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं का अपवाद हैं, जो बाहर से आकर भी बिहार की राजनीति में अपना पैर जमा लिये। सबको अपनी बिरादरी की पार्टी से मतलब है, जो विकास को पीछे और अपनी जाति को आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं।
वर्तमान में बिहार के बक्सर जिले के भाजपा नेता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे हिमांशु चतुर्वेदी का कहना है कि जातिवादी राजनीति खोखली होती जा रही है। अब जाति नहीं, लोग काम पर ध्यान दे रहे हैं। संबंध सबसे महत्वपूर्ण है। जाति आधारित पार्टियां कुछ दिन के लिए तो अच्छी लगती हैं, लेकिन कुछ दिनों बाद ही वह कीट-पतंगों की तरह फड़फड़ाकर खत्म भी हो जाते हैं।