कांग्रेस को आई सेवादल की याद, बिहार में सियासी जमीन कर पाएगी आबाद!

35 साल से बिहार की सत्ता से दूर कांग्रेस को सेवा दल की याद आई है। इस वक्त राजधानी पटना में इसकी बैठक चल रही है। चुनाव से पहले सेवादल की बढ़ी सक्रियता का मायने-मतलब बता रहे हैं, पटना से वरिष्ठ पत्रकार धनंजय कुमार।

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पटना: कभी बिहार की सियासत पर एकक्षत्र राज करने वाली कांग्रेस यहां की सत्ता से बीते 35 सालों से दूर है। बेशक इस बीच में सत्ता में शामिल होने का पार्टी को मौका मिला, लेकिन कभी धुर विरोधी रहे राष्ट्रीय जनता दल के रहमोकरम पर। इस बीच पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व से लेकर राज्य इकाई तक ने कोशिशें बहुत की। फिर भी, कांग्रेस की सियासी जमीन लगातार खिसकती चली गई।

अब इस बार बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी नेताओं को अपने सेवादल की याद आई है। इसे फिर से सक्रिय करने की कवायद शुरू हो गई है। इसकी तैयारी तो साल दो वर्ष पहले से चल रही थी, लेकिन इस बार राज्य स्तर पर चिंतन शिविर आयोजित कर जोश भरने का काम कर रही है। बीते 22 जून से शुरू हुआ यह चिंतन शिविर आगामी एक जुलाई तक चलेगा। इससे कांग्रेस सेवादल के कार्यकर्ताओं में कितना जोश भरा यह तो इस साल होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम ही बताएगा, लेकिन 46 साल बाद पार्टी नेताओं की इस पहल से हाशिए पर चला गया यह संगठन जरूर उत्साहित और नई उम्मीदों वाला होगा। यह चिंतन शिविर पटना के फुलवारी शरीफ स्थित गोनपुरा गांव में चल रहा है।

सदस्यता बढ़ाना और समर्थन जुटाना है लक्ष्य

10 दिवसीय इस चिंतन शिविर का शुभारंभ कांग्रेस पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम ने किया था। उसका मूल मकसद संगठन को जमीनी स्तर पर मजबूत बनाना। इसके लिए सदस्यों की संख्या बढ़ाने के साथ पार्टी के हित में समर्थकों की फौज तैयार करना है। साथ ही बूथ स्तर पर सेवादल के कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी दी गई है। इनका काम हर बूथ को सियासी तौर पर मजबूत करना है और कम से कम 40 सीटों पर पार्टी के लिए जीत सुनिश्चित कर सके। ताकि, इंडी गठबंधन में अपनी बात मजबूती से रखी जा सके।

वर्ष 1985 में आखिरी बार सत्ता में आई कांग्रेस

बिहार में कांग्रेस पार्टी की सियासी हालात की बात करें तो वह आखिरी बार वर्ष 1985 में 324 में से 196 सीटें जीत कर सत्ता में आई थी। उस वक्त बिहार और झारखंड एक ही हुआ करता था। लेकिन 1985 से 1990 से बीच कांग्रेस पार्टी ने चार मुख्यमंत्री बदल दिए और यहीं से बिहार में उसकी सियासत के अंत की शुरुआत हुई।

1990 में 71 सीटों पर सिमट कर रह गई थी

साल 1990 एकीकृत बिहार (बिहार-झारखंड) की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। पांच वर्ष पहले 324 विधानसभा सीटों में से 196 पर जीत दर्ज करने वाली कांग्रेस पार्टी महज 73 सीटों पर सिमट कर रह गई। वहीं जनता दल को 122 सीटें मिलीं और झारखंड मुक्ति मोर्चा को 19, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 23, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (एम) को 6, जनता पार्टी को 3, सोशलिस्ट पार्टी को एक और 30 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे। इसमें जनता पार्टी के नेता लालू प्रसाद यादव के विधायक दल का नेता चुना गया और उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यहां के बाद कांग्रेस पार्टी कभी खड़ी नहीं हो पाई और 1995 के विधानसभा चुनाव में वह गिरकर 28 पर आ गई।

साल 2000 में तो और भी खिसक गई कांग्रेस की जमीन

साल 2000 में बिहार की सियासत ने एक बार फिर पलटी मारी और सात दिन के लिए सही, लेकिन नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन जाते हैं। लेकिन कांग्रेस पार्टी की किस्मत इस बार भी खराब ही रही और वह 23 पर सिमट कर रह गई।

पांच साल बाद नया बिहार, लेकिन कांग्रेस दहाई भी नहीं

साल 2005 झारखंड अलग राज्य बन चुका था। बिहार में विधानसभा सीटों की संख्या 243 रह गई थी। नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड 88 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनती और 55 सीटों के साथ भाजपा सरकार में शामिल हो जाती है। लेकिन कांग्रेस की किस्मत 9 सीटों पर आकर अटक गई, वहीं 2010 में तो 4 पर ही उसे संतोष करना पड़ा।

साल 2015 में कांग्रेस को मिला ऑक्सीजन

लंबे समय से लगातार गिरावट के ग्राफ को देख रही कांग्रेस पार्टी को 2015 के विधानसभा चुनाव में जनता से थोड़ा भरोसा दिखाया और उसे 24 सीटों पर जीत मिली। इस विधानसभा चुनाव में राजद ने गठबंधन के तहत 42 सीटों दी थीं।

2020 में एक बार फिर हुआ नुकसान

2015 के चुनाव से उत्साहित कांग्रेस पार्टी अपनी सियासी जमीन को और मजबूत कर सकती थी, लेकिन उसे जनता ने स्वीकार नहीं किया। पार्टी को महज 19 सीटों पर जीत मिली।

अब सेवादल के सहारे सत्ता में आने की कोशिश

2025 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी बिहार में अपने जमीनी संगठन को मजबूत करने में जुट गई है। अब तक हाशिए पर चल रही सेवादल को आगे बढ़ाने की कोशिश में साल 2023 से लगी हुई है। इसी कड़ी में चिंतन शिविर का भी आयोजन किया गया है। पार्टी नेताओं का मानना है कि यदि जमीनी कार्यकर्ताओं को मजबूत किया गया तो जनता के बीच पहुंच आसान हो जाएगी।

(लेखक धनंजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं। दैनिक जागरण, नई दुनिया, नवोदय टाइम्स, ईनाडू इंडिया में वरिष्ठ संवाददाता के अलावा ईटीवी भारत में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के स्टेट एडिटर रह चुके हैं।)

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