नई दिल्ली: खेती-किसानी का सवाल आजादी के बाद से ही देश की चर्चा के केंद्र में रहा है। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन खेती नहीं।’ प्रधानमंत्री से मिले भरोसे के बावजूद खेती अपनी बेहतरी का इंतजार ही करती रही। यह अभी भी नहीं थमा है। घाटे का सौदा बनी खेती किसानों के निजी जिंदगी में आने वाली हर दिन की चुनौतियों का भी हल नहीं दे सकती है। यह सब सरकारों ने आश्वासनों और वायदों के बावजूद हुआ है। आजादी के बाद से जिस तरह से सरकारें वायदे करती रही, समस्याएं भी उसी तरह से गहराती गईं। फसलों के समर्थन मूल्य की जो पहल भी हुई, वह व्यापारियों व बिचौलियों के हक में ज्यादा गईं। किसानों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ। किसान कृषि ऋण, फसलों की बर्बादी, खेती में नुकसान के तनाव और दबाव से घिरता रहा। तभी उसने आत्महत्या करने तक के कदम भी उठाए हैं।
बात सबसे पहले फसल चक्र में उलझे किसानों की अदृश्य बेरोजगारी पर। फसल उगाने और फसल काटने के बीच में जो वक्त बचता है, उसमें किसानों के पास कुछ खास काम नहीं होता। वह तकरीबन बेरोजगार होता है। तभी आज ग्रामीण मजदूरों की आय किसानों से ज्यादा हो गई है। 2012-13 में एक औसत भारतीय किसान परिवार की खेती से होने वाली मासिक आमदनी 3,081 रुपये थी। छह वर्ष बाद 2018-19 में यह बढ़कर महज 3,798 रुपये पर पहुंची। दूसरी तरफ इन छह वर्षों में मजदूरी से होने वाली कमाई 2,071 रुपये से बढ़कर 4,063 रुपये हो गई।
इसका नतीजा यह है कि किसान किसानी छोड़ रहे हैं। 2013 से 2019 के बीच खेती करने वाले परिवारों की संख्या नौ करोड़ से बढ़कर 9.3 करोड़ हो गई। जबकि कृषि कार्य में शामिल नहीं होने वाले परिवारों की संख्या 6.6 करोड़ से बढ़कर आठ करोड़ पर पहुंच गई। 2011 की जनगणना के अनुसार, हर रोज 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। परिवार बंटने से खेतों का आकार छोटा होना भी इसकी वजह है। खेती लाभकर नहीं रह गई है। किसान का बेटा खेती करने का इसलिए इच्छुक नहीं होता।
किसानों की आय में ठहराव आने से कर्ज का बोझ भी बढ़ा है। 2012-13 में एक औसत किसान परिवार पर 47,000 रुपये का कर्ज था। 2018-19 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गया। विडंबना यह है कि किसानों की हालत मजदूरों से बदतर हो रही है तो कृषि उपजों के कारोबार में लगी कंपनियों का मुनाफा बढ़ता जा रहा है। किसान की उपज बाजार में आती है तब उसके दाम गिर जाते हैं और बाद में कई गुना बढ़ जाते हैं। यानी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती। वजह बिचौलियों का प्रभुत्व है।

आंकड़ों में किसान
कृषि परिवारों से देश की कुल अनुमानित आय करीब 93.09 मिलियन है। इसमें 70 फीसदी के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है। इसका मतलब यह है कि 70 फीसदी सीमांत किसान देश में हैं। स्पष्ट तौर पर सरकार को किसानों को हुनरमंद बनाने की कोशिश करनी चाहिए। किसानों को औद्योगिक केंद्रों का हिस्सा बनने में सक्षम बनाने पर ध्यान देना चाहिए।विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार को सीमांत किसानों पर खास फोकस रखना चाहिए। कृषि नीति मुख्य रूप से कृषि आय के लिए सीमांत किसानों को लक्षित करती है। लेकिन इन सीमांत किसानों के लिए कृषि आय को दोगुना करना आसान नहीं है। इसके पीछे का राज यह है कि सीमांत किसानों के पास उत्पादन के लिए पर्याप्त जमीन नहीं है। वहीं, इनकी घरेलू आय का 60 फीसदी दिहाड़ी मजदूरी के माध्यम से आता है। इसका मतलब है कि कृषि आय केवल उन लोगों के लिए दुगनी या तिगुनी हो सकती है, जो वास्तव में कृषि पर निर्भर हैं। जिनके पास श्रम और पूंजीगत संसाधनों को उत्पादक रूप से उपयोग करने के लिए पर्याप्त भूमि है।
व्यावहारिक सहकारिता को देना होगा बढ़ावा
यहां बात सीमांत किसानों, एक हेक्टेयर से कम जोत वालों पर। वह इसलिए कि किसानों के बीच इनकी संख्या करीब 70 फीसदी बैठती है। सवाल यहां अहम यही है कि इनकी खेती को फायदे का सौदा कैसे बनाया जाए। इसका सीधा जवाब यह है कि इनको मंडियों से मुक्ति मिले और वैकल्पिक कृषि की व्यवस्था बने। जब तक गेहूं व धान का स्थायी फसल चक्र नहीं बदलता, तब तक छोटे किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी। देश के अलग-अलग हिस्सों में चक्र टूटता भी दिख रहा है।
मसलन, किसान इस वक्त केले के खेती कर रहे हैं और मशरूम भी। बागवानी व जड़ी-बूटी की खेती भी पसंदीदा बन रही है। आगे यह भी देखना पड़ेगा कि जब तक कृषक कृषि के साथ अपने खेत पर मत्स्य-तालाब, पशुपालन, बागवानी, सब्जी की खेती को नहीं जोड़ता, तब तक किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं है। दूसरी तरफ सरकार को भी कृषि क्षेत्र में सहकारिता को बढ़ावा देना होगा। किसानों के उत्पाद को बाजार मुहैया कराना भी चुनौती होगी।

अदृश्य बेरोजगारी को पहचान कर करनी होगी दूर
ग्रामीण बस्तियों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी छिपी होती है। इसका निदान भी वैकल्पिक खेती में ही है। हालांकि, इसके लिए सबसे जरूरी खेत में ही किसानों की बस्ती। क्योंकि सब्जी उगाना, मुर्गी, बकरी और गाय पालना, पौधारोपण तभी संभव है जब इस तरह की खेती की 24 घंटे निगरानी हो। तालाब बनाकर मछली पालन भी किसान तभी सोच सकते है। यह सब तब संभव है जब किसानों का घर खेत पर ही हो। खेत पर आवास होने से महिलाएं भी कृषि कार्यों में बराबर भागीदारी कर सकेंगी। बड़े किसानों को भले ही अपने हितों को साधना हो, लेकिन सीमांत किसानों को अपने सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग कर अपनी जिंदगी बदलनी होगी। विकल्पों को तलाशना होगा। जो आत्मनिर्भरता को ओर लेकर जाएगा।
एकीकृत कृषि प्रणाली का मॉडल
कृषि विज्ञान केंद्र ने 1.2 हेक्टेयर क्षेत्रफल तक के किसानों के लिए एक मॉडल तैयार किया। इसमें धान, गेहूं, मूंग, उड़द सरसों और गन्ना की खेती के लिए 0.3 हेक्टेयर रकबा तय किया है। बागवानी में नींबू, अमरूद, आंवला, बेल और आम के लिए 0.5 हेक्टेयर रकबा रखा है। 100 मुर्गी का पालन, मौन पालन के 10 बॉक्स और वर्मी कम्पोस्ट निर्माण के लिए 0.1 हेक्टेयर का एरिया रखना होगा। इस मॉडल में कृषि के साथ ही रोजगार के अन्य अवसर भी हैं। संसाधनों के विविध उपयोग से पूरे परिवार की आमदनी सुनिश्चित हो सकती है।
समझें, भारतीय किसान और किसानी से जुड़े फैक्ट
किसानों के प्रकारः
- सीमांत किसानः वे किसान जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है।
- छोटे किसानः जिन किसानों के पास 1 या 2 हेक्टेयर भूमि है।
- मध्यम किसानः वैसे किसान जिनके पास 4-6 हेक्टेयर भूमि है।
- बड़े किसानः 10 हेक्टेयर और उससे अधिक भूमि वाले किसान।
औसत कृषि घरेलू आय डाटा
. एक औसत कृषि परिवार ने 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान कुल 10,218 रुपये की मासिक आय अर्जित की।
. अर्जित आय में फसल उत्पादन में 3,798 रुपये।
. पशुओं की खेती से 1,582 रुपया।
. मजदूरी/वेतन से 4,063 (आय का सबसे बड़ा स्रोत) रुपया।
. इसका सीधा मतलब यह भी है कि एक औसत किसान अपनी जमीन की तुलना में दिहाड़ी मजदूरी से ज्यादा कमाता है।
बड़ी भूमि वाले किसान कर सकते ज्यादा उत्पादन
. बाजार, पानी, बिजली, ऋण तक बेहतर पहुंच।
. उत्पादकता बढ़ाने वाले इनपुट।
. पैदावार बढ़ाकर उनकी उत्पादन लागत कम करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
. उच्च इनपुट दक्षता सुनिश्चित करना।
. न्यूनतम पर्यावरणीय क्षति।
किसान रेल लाभकारी हो सकता है
बंपर पैदावार अगर किसी राज्य में होती है तो उस राज्य में कीमत किसानों को नहीं मिलता। लेकिन पिछले दिनों देखा गया कि किसान रेल चली और एक राज्य से दूसरे राज्य बंपर पैदावार को भेजा गया। जिससे किसानों को मुनाफा हुआ। उदाहरण के रूप में हरियाणा का बाजार राजस्थान नहीं पहुंचा तो उसे दक्षिण भारत भेजा गया। किसान रेल का बड़ा लाभ यह हुआ कि किसान गेहूं-धान के बजाय फलों एवं सब्जियों की खेती को प्राथमिकता देने लगे हैं।
देश के 8.5 फीसद फसली क्षेत्र पर बागवानी फसलों की खेती की जाती है, लेकिन इनसे कृषिगत सकल घरेलू उत्पाद का 30 फीसद प्राप्त होता है। फलों एवं सब्जियों की खेती अन्य फसलों के मुकाबले चार से दस गुना ज्यादा रिटर्न देती है। शहरीकरण, मध्यवर्ग का विस्तार, बढ़ती आमदनी, खान-पान की आदतों में बदलाव के चलते दुनिया में अनाज के बजाय फलों-सब्जियों की मांग में तेजी से इजाफा हो रहा है।
एफपीओ
भारत विश्व का 12.6 फीसदी फल एवं 14 फीसदी सब्जी उत्पादित करता है। लेकिन फलों एवं सब्जियों के कुल वैश्विक बाजार में उसकी हिस्सेदारी महज 0.5 एवं 1.7 फीसदी ही है। यही वजह से कि फलों-सब्जियों की खेती को बढ़ावा सरकार दे रही है। कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाए जा रहे है। 2020 में शुरू हुई इस योजना के तहत अगले तीन साल में देश भर में 10,000 एफपीओ बनाने का लक्ष्य रखा गया है। एक एफपीओ में 50 प्रतिशत छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान शामिल होंगे। 15 लाख रुपये का अनुदान भी प्रत्येक एफपीओ को मिलेगा। दूसरे शब्दों में किसानों को उद्यमी बनाने का प्रयास है एफपीओ।

किसान और कर्जदारी
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की एक रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण भारत के राज्यों के किसान-परिवारों पर कर्जे का बोझ सबसे ज्यादा है। आंध्र प्रदेश के कर्जदार किसान-परिवारों पर औसतन 2,45,554 रुपये का कर्जा है। दूसरा नंबर केरल राज्य का है। यहां प्रत्येक किसान-परिवार पर 2,42,482 रुपये का कर्ज है। तीसरा नंबर पंजाब का है। किसान-परिवारों पर औसतन 1,19,500 रुपये का कर्ज है। चौथे नंबर पर तेलंगाना है। कर्जे की रकम 1,52,113 रुपये है।
रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में आंध्र प्रदेश में 93.2 प्रतिशत किसान-परिवार कर्जदार थे। तेलंगाना में 91.7 फीसद किसान-परिवारों पर कर्ज था। केरल में 69.9 प्रतिशत किसान-परिवार कर्ज में डूबे हैं। कर्नाटक में 67.6 प्रतिशत किसान-परिवार कर्जदार हैं। दूसरी तरफ राजस्थान में यह आंकड़ा 61.8 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 50.8 फीसदी, मध्य प्रदेश में 45.7 फीसदी व उत्तराखंड में 43.8 फीसदी है।रिपोर्ट के अनुसार, असम के किसानों पर छह साल की अवधि में कर्ज 382 प्रतिशत बढ़ा है। त्रिपुरा के किसानों पर कर्जे की रकम में 378 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। मिजोरम में तो किसान-परिवारों पर कर्जे की रकम में 709 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट से साफ है कि कम जोत वाले किसान-परिवारों के बीच कर्जदार किसान-परिवारों की संख्या सबसे ज्यादा है। कुल कर्जदार किसान-परिवारों में 34.4 प्रतिशत तादाद ऐसे किसान-परिवारों की है, जिनके पास 0.40-1.00 हेक्टेयर की जमीन है। रिपोर्ट के तथ्यों से जाहिर है कि सर्वाधिक कर्जदार किसान-परिवार छोटी जोत के हैं और कर्ज की रकम चाहें उनके ऊपर बड़ी जोत वाले किसान-परिवारों की तुलना में एक चौथाई हो लेकिन ऐसे परिवारों में कर्जदारी का मुख्य कारण खेती-बाड़ी नहीं बल्कि अन्य जरूरतों की भरपाई है।
कर्ज में फंसी खेती
. बीते छह सालों में 2013 से 2019 के बीच देश में खेती-किसानी करने वाले परिवारों पर औसत कर्ज 50 प्रतिशत से ज्यादा (कुल 57.7 प्रतिशत) बढ़ा है।
. नेशनल सैंपल सर्वे के 70 वें दौर की गणना पर आधारित छह साल पुरानी रिपोर्ट बताती है कि 2013 में औसतन 47000 रुपये का कर्ज था।
. एनएसएस के 77 वें दौर की रिपोर्ट बताती है कि कर्ज की औसत रकम 2019 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गई है।
. चढ़े कर्जे की रकम प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के मार्फत मिलने वाली सहायता राशि के सहारे चुकाना चाहें तो उन्हें कर्जा (74,121 रुपये का) चुकता करने में लगभग 12 साल लगेगा।
. सम्मान निधि के तहत किसान परिवारों को सालाना 6,000 रुपये दिए जाते हैं।
. विश्लेषण पेश करने वाली संस्था इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज के मुताबिक नाबार्ड की साल 2016-17 की रिपोर्ट में कहा गया कि देश के कुल 52.5 प्रतिशत किसान-परिवार कर्जदार हैं और तब इन किसान-परिवारों पर औसतन 1,04,602 रुपये का कर्ज था।