नई दिल्ली: कभी आपने ऊपर नीले आसमान को देखा है? यह जितना शांत दिखता है, उतना ही खतरों से भरा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक अदृश्य शक्ति लगातार हमारी रक्षा कर रही है? यह है भारत का अभेद्य वायु कवच, एक ऐसा मजबूत जाल जो आसमान में आने वाले हर खतरे को रोकने के लिए तैयार है। यह सिर्फ कुछ मशीनों का संग्रह नहीं है, बल्कि वायुसेना के बढ़ते कदमों, पड़ोसी देशों के साथ बदलते रिश्तों और अपनी सुरक्षा के लिए खुद पर भरोसा करने की हमारी कहानी है।
दरअसल, किसी भी देश के लिए, दुश्मन के हवाई खतरों जैसे कि लड़ाकू विमान, ड्रोन, मिसाइल और हेलीकॉप्टर को नष्ट करने की तकनीक आधुनिक युद्ध कौशल के लिए बेहद जरूरी मानी जाने लगी है। भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के संदर्भ में, जहां सीमा पर अक्सर तनाव बना रहता है, इन सिस्टम की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। आइए, इस अभेद्य वायु कवच की विकास यात्रा को आसान भाषा में समझते हैं कि कैसे भारत ने समय के साथ अपने आसमान को सुरक्षित बनाया।
शुरुआत और विकास (1932-1971)
आजादी से पहले भारतीय वायुसेना ने 1932 में बहुत छोटे स्तर पर काम करना शुरू किया था। आजादी के बाद हमने पुराने विमानों को हटाकर नए जेट लड़ाकू विमान जैसे हॉकर्स हंटर और सुखोई एसयू-7 को शामिल किया। उस समय वायु रक्षा का मुख्य तरीका था कि लड़ाकू विमान हवा में दुश्मन के विमानों को मार गिराएं। हमारे पास शुरुआती चेतावनी देने वाले रडार भी थे, जो ज्यादातर द्वितीय विश्व युद्ध के समय के थे या हमें सोवियत संघ से पी-3ए जैसे बुनियादी सिस्टम मिले थे। ये रडार हमें खतरे की शुरुआती जानकारी तो दे देते थे, लेकिन ये पूरे आसमान का साफ चित्र नहीं दिखा पाते थे।
1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों से जो समझ बनी, उसमें कई स्तर पर काम करने वाली हवाई सुरक्षा प्रणाली की जरूरत महसूस हुई। इसी वजह से भारत ने सोवियत संघ से जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलें (SAM) लेना शुरू किया। स्थिर मध्यम दूरी की प्रणाली एस-125 पेचोरा और चलने वाली कम दूरी की प्रणाली 9K33 ओसा-AK ने हमारी जमीन-आधारित हवाई सुरक्षा की शुरुआत की। आज की तुलना में इनकी क्षमताएं सीमित थीं।
आत्मनिर्भरता की ओर (1972-1999)
1972 से 1999 तक का समय हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। इस दौरान हमने अपनी तकनीक पर भरोसा करना सीखा। 1983 में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम (IGMDP) शुरू करना बड़ा कदम था। इसने मिसाइल तकनीक को आत्मनिर्भर बनने की दिशा में काम किया। आकाश (मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल) और त्रिशूल (कम दूरी की SAM, यह मुख्य रूप से नौसेना और सेना के लिए थी) जैसी मिसाइलें हमारी हवाई सुरक्षा को मजबूत करने के लिए ही बनाई गईं थीं।
इस दौरान पुरानी हवाई रक्षा तोपें भी महत्वपूर्ण थीं। मसलन, ZSU-23-4 शिल्का (जो अपने आप चलती है) और ZU-23-2 (जिसे खींचकर ले जाया जाता है)। यह कम ऊंचाई के खतरों से हमारी महत्वपूर्ण जगहों की रक्षा करती थीं। इसके साथ सोवियत संघ से बेहतर SAM प्रणालियां हासिल की गई। इसमें एस-200 (लंबी दूरी) और एस-75 वोल्खोव (मध्यम दूरी) शामिल थे। पी-12 और पी-37 सरीखे बेहतर रडार भी मिले, जिससे हवाई सुरक्षा और मजबूत हुई। इससे बड़े इलाके की निगरानी करना संभव हो सका।
एक मजबूत और जुड़ा हुआ सुरक्षा घेरा (2000 से अब तक)
21वीं सदी में भारतीय हवाई सुरक्षा प्रणाली में बहुत तेजी से बदलाव आया। बैलिस्टिक मिसाइलें और ड्रोन जैसे नए खतरे सामने आए। इसलिए ऐसी सुरक्षा व्यवस्था बनानी पड़ी, जो कई स्तरों पर काम करे और आपस में जुड़ी हो। कारगिल युद्ध के बाद बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा (BMD) कार्यक्रम शुरू किया। इसका लक्ष्य था कि अगर कोई दुश्मन मिसाइल भारतीय सीमा में प्रवेश करे तो उसे हवा में ही मार गिराया जाए। इसके लिए दो तरह की परतें बनाईं। पहला, पृथ्वी एयर डिफेंस (PAD), जो वायुमंडल के बाहर ही मिसाइलों को रोके और एडवांस्ड एयर डिफेंस (AAD) जो वायुमंडल के अंदर भी काम कर सके।
सतह से हवा में मार करने वाली भारतीय मिसाइल (SAM) क्षमता को और बेहतर बनाने के लिए भारत ने इजरायल के साथ मिलकर बराक-8 जैसी आधुनिक मिसाइलें बनाईं। यह करीब 100 किलोमीटर दूर तक कई लक्ष्यों को मार सकती हैं। रूस से एस-400 ट्रायम्फ नाम की एक और ताकतवर हवाई सुरक्षा प्रणाली मिली, जो करीब 400 किलोमीटर की दूरी तक अलग-अलग तरह के हवाई खतरों से निपट सकती है। भारतीय आकाश मिसाइल प्रणाली, जो कई जगहों पर तैनात है, मध्यम दूरी की सुरक्षा की मुख्य आधार बन गई है। इसके बेहतर वर्जन जैसे आकाश प्राइम और आकाश-एनजी भी आ रहे हैं। क्विक रिएक्शन सरफेस-टू-एयर मिसाइल (QRSAM) एक ऐसी प्रणाली है, जो जल्दी से प्रतिक्रिया कर सकती है और इसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है।
इस वक्त ड्रोन का खतरा बहुत बढ़ गया है। इसलिए काउंटर अनमैन्ड एरियल सिस्टम्स (C-UAS) पर भी खास ध्यान गया है। इसमें भार्गवास्त्र जैसे समाधान शामिल हैं। इसमें एक ऐसा नेटवर्क तैयार हो रहा है, जिसमें रडार, इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल/इन्फ्रारेड (EO/IR) सेंसर, आवाज सुनने वाले सेंसर, इलेक्ट्रॉनिक काउंटरमेजर्स और गतिज इंटरसेप्टर जैसी चीजें शामिल होंगी।
इन सभी अलग-अलग सिस्टम को एक साथ जोड़ने का काम करता है इंटीग्रेटेड एयर कमांड एंड कंट्रोल सिस्टम (IACCS)। यह एक तरह से हमारे हवाई सुरक्षा तंत्र का दिमाग है। यह अलग-अलग रडार (जैसे लंबी दूरी के निगरानी रडार ThALES LW05, ELTA EL/M-2083 और सामरिक रडार BEL Rajendra, EL/M-2084), SAM प्रणालियों, AEW&C विमानों (जैसे DRDO AEW&CS और IAI Phalcon), और सेटेलाइट से मिलने वाली जानकारी को एक साथ मिलाकर एक तस्वीर बनाता है। IACCS हमें असली समय में यह बताता रहता है कि आसमान में क्या हो रहा है, जिससे हम खतरों का सही अंदाजा लगा पाते हैं और तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं।
भारत ने इलेक्ट्रॉनिक युद्ध (EW) क्षमता में भी निवेश किया है। इसका मतलब है कि भारतीय सेना दुश्मन के रडार और बातचीत को जाम या धोखा दे सकते हैं, और साथ ही अपनी चीजों को ऐसे हमलों से बचा भी सकते हैं। DRDO ने कई EW सूट और जैमर बनाए हैं जो हमारी वायुसेना के विमानों और जमीन-आधारित सिस्टम में लगे हुए हैं।

ऑपरेशन सिंदूर
ऑपरेशन सिंदूर ने दिखाया कि हमारी आधुनिक हवाई सुरक्षा प्रणाली कितनी ताकतवर है। हमने पाकिस्तान की हवाई सुरक्षा प्रणालियों को जल्दी से नाकाम करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक युद्ध तकनीकों और घातक लूटरिंग मुनिशन जैसे इजरायली हारोप का इस्तेमाल किया, जिसने दुश्मन के रडार और मिसाइल लॉन्चरों को निशाना बनाया।
पाकिस्तान ने जो हवाई हमले किए, उनमें कई तरह के हवाई लक्ष्य शामिल थे, लेकिन हमारी बहु-स्तरीय हवाई सुरक्षा प्रणाली ने उन्हें सफलतापूर्वक रोक दिया। हमारी अपनी आकाश मिसाइल प्रणाली और नया AI-संचालित एयर डिफेंस कंट्रोल एंड रिपोर्टिंग सिस्टम (ADCRS) आकाश तीर ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आकाश तीर के उन्नत AI ने खतरे का तेजी से आकलन किया, लक्ष्यों को सटीकता से पहचाना और इंटरसेप्टर को सही जगह पर भेजा। इस ऑपरेशन में हमारी किसी भी हवाई संपत्ति को नुकसान नहीं हुआ, जो दिखाता है कि हमारे SEAD अभियान कितने प्रभावी थे और हमारी हवाई सुरक्षा नेटवर्क कितनी अच्छी तरह से काम करती है। ISRO के निगरानी और संचार उपग्रहों ने हमें असली समय में खुफिया जानकारी और सुरक्षित संचार देकर बहुत मदद की। ऑपरेशन के बाद, लंबी दूरी के खतरों को रोकने में S-400 की सफलता को देखते हुए, भारत ने इस प्रणाली की और इकाइयां खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है।
भविष्य की राह
ऑपरेशन सिंदूर से मिले अनुभव और सबक भारतीय हवाई सुरक्षा प्रणाली के भविष्य को दिशा देंगे। आत्मनिर्भरता पर और भी ज्यादा ध्यान होगा। अगली पीढ़ी के स्वदेशी SAM और हवाई सुरक्षा कमान एवं नियंत्रण प्रणालियां विकसित करेंगे। काउंटर अनमैन्ड एरियल सिस्टम्स (C-UAS) पर हमारा खास ध्यान रहेगा। इसमें बेहतर सेंसर, इलेक्ट्रॉनिक काउंटर उपाय और गतिज इंटरसेप्टर शामिल होंगे। भारतीय हवाई सुरक्षा प्रणालियों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML) को और भी ज्यादा शामिल किया जाएगा। इससे खतरे का आकलन करने की क्षमता बेहतर होगी। भविष्य में आने वाले हाइपरसोनिक मिसाइल खतरों से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा। इसके लिए उन्नत सेंसर और इंटरसेप्टर मिसाइलें विकसित करनी होंगी। साथ में निर्देशित ऊर्जा हथियारों (DEWs) की संभावनाओं पर भी विचार करेंगे।
भारत का हवाई सुरक्षा तंत्र कोई ऐसी चीज नहीं है जो एक बार बनकर खत्म हो गई। यह लगातार बदल रहा है और नई तकनीकों को अपना रहा है ताकि हमारा आसमान हमेशा सुरक्षित रहे। ऑपरेशन सिंदूर ने न केवल यह दिखाया कि मौजूदा ताकत क्या है, बल्कि भविष्य के लिए एक साफ रास्ता भी दिखाया है – एक ऐसा भविष्य, जहां भारत का आसमान अभेद्य और सुरक्षित रहेगा। एक ऐसी एकीकृत और तकनीकी रूप से उन्नत प्रणाली के माध्यम से जो हर तरह के खतरे का मुकाबला करने में सक्षम है।