बाजार से नहीं निकलेगा प्रदूषण का समाधान

जलवायु परिवर्तन पर होने वाले हर शिखर सम्मेलन में दुनिया भर के बढ़ते तापमान की चर्चा आम रहती है। वातावरण का गरम करने वाली गैसों में कटौती की कम-ज्यादा प्रतिबद्धता कमोवेश सभी देश जाहिर भी करते हैं। फिर भी, जमीनी हालात में बड़ा बदलाव नहीं दिखता। जलवायु परिवर्तन धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है।

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पूरी दुनिया पर नजर दौड़ाएं तो जल-थल-वायु के प्रदूषण को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं साल भर चलती रहती हैं। लेकिन इन सबमें जो छूट रही हैं, वह है विकास के मौजूदा मॉडल की। इस पर ज्यादा बात नहीं होती, जबकि चीजों को खराब करने में इसका बड़ा योगदान है।
मौजूदा विकास मॉडल ‘मानव विकास’ का पैमाना ‘भौतिक विकास’ को मानता है। इसमें अधिक से अधिक उत्पादन पर जोर है, ताकि लोगों की आमदनी बढ़े और वह अपने लिए अधिकाधिक भौतिक सुविधाएं जुटा सकें। इसमें ‘मोर इज बेटर’ (जितना ज्यादा, उतना अच्छा) की अवधारणा नत्थी है।

इस मानक पर हर इंसान अधिक खपत करने की जुगत में रहता है। और खपत बढ़ने का सीधा मतलब है प्रदूषण का बढ़ते जाना। अगर हम खपत नहीं बढ़ाते, तो यह मान बैठते हैं कि अपनी तरक्की नहीं कर रहे हैं। यह सोच पहले विकसित राष्ट्रों तक सीमित थी, फिर तीसरी दुनिया (भारत भी इसमें शामिल है) के संपन्न तबकों की बनी, और अब यह रिसकर मध्यवर्ग तक पहुंच गई है। 

दौर यूज एंड थ्रो का, रीसाइकिल पर नहीं रहा यकीन
दिल्ली का दो साल पहले का सामाजिक-आर्थिक सर्वे बताता है कि यहां 90 प्रतिशत परिवारों का मासिक खर्च 10 हजार रुपये भी नहीं है। इतनी कम रकम में उनकी बुनियादी जरूरतें ही जैसे-तैसे पूरी हो पाती है, इसलिए खपत मूलत: संपन्न तबका कर रहा है। दुनिया के स्तर पर यह वर्ग अमीर राष्ट्र का है। 

मौजूदा दौर ‘यूज एंड थ्रो’, ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ का है। इसमें उत्पाद खराब होने का मतलब नए उत्पाद की खरीदारी है। इस सोच की भरपाई के लिए ज्यादा उत्पादन हो रहा है। इसका नतीजा कार्बन फुट प्रिंट का बढ़ जाना है। इसमें अमीर की हिस्सेदारी अधिक है और गरीबों की बहुत कम। मुश्किल यह है कि सब कुछ जानते-समझते हुए भी धनाढ्य वर्ग अपनी खपत कम करने को तैयार नहीं। यही वजह है कि हमारी आबोहवा अब जानलेवा हो चली है, नदियां अपनी निर्मलता छोड़ चुकी हैं और जमीन का दोहन बढ़ने लगा है। 
हम चाहें, तो इनमें सुधार ला सकते हैं। बेशक, वैश्विक तापमान बढ़ने का असर हम पर भी हो रहा है, लेकिन नदियों की साफ-सफाई या जमीन की हिफाजत हमारे अपने हाथ में है।

पहले बीमार करो, फिर इलाज की सोच हावी
विकसित राष्ट्रों की संस्कृति को अपनाने का दुष्परिणाम भारत जैसे दुनिया भर के विकासशील देशों पर पड़ा है।हम एक तरफ अपना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाने के लिए ऐसी आर्थिक गतिविधियां करते हैं, जिनसे प्रदूषण बढ़ता है, और फिर उसको साफ करने की कथित कवायद करके जीडीपी बढ़ाते हैं। मतलब, पहले बीमार करो और फिर इलाज में हुए खर्च को जीडीपी में जोड़कर अपनी तरक्की दिखाओ।

अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने पुस्तक लिखी है। नाम है इसका ‘इंडियन इकोनॉमी सिंस इंडिपेंडेंस’। इसमें उन्होंने सवाल उठाया है कि अधिकाधिक डॉक्टर, नर्स या अस्पताल एक अच्छे समाज के सूचक हैं या बुरे समाज के? इसका उन्होंने जवाब भी दिया है कि इनकी एक आदर्श संख्या तो समझी जा सकती है, लेकिन यदि गली-गली में अस्पताल खुलने लगें, तो समझ लेना चाहिए कि बीमारियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। 

इसी पुस्तक में दिल्ली एम्स की एक रिपोर्ट का जिक्र किया गया है। इसके मुताबिक, 1980 के दशक में बच्चों को अस्थमा की शिकायत नहीं होती थी, लेकिन 2002 में अस्थमा के कुल मरीजों में बच्चों की हिस्सेदारी लगभग 15 फीसदी थी।

जीवन में बसी ‘मोर इज बेटर’ की संस्कृति
आज ‘मोर इज बेटर’ की अवधारणा जीवन में रच-बस गई है। इसमें माना जाता है कि जितना है, उतना ही अच्छा है। इसी से जुड़ा दूसरा पहलू भी है। ज्यादा उसी के पास होगा, जो खरीदने लायक होगा। इसी नजरिए से स्वच्छ तकनीक विकसित देशों में रहेगी और खराब (यानी बीमार करने वाली) तकनीक विकासशील देशों में।

विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री लॉरेंस हेनरी समर्स ने  कभी एक परचा लिखा था। इसमें उनका मानना था, यह बाजार तय कर रहा है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में लोगों की मृत्यु हो, क्योंकि अमीर राष्ट्र के बाशिंदे बाजार में सक्षम होते हैं। उनकी प्रति व्यक्ति आय अधिक है और वे तुलनात्मक रूप से लंबा जीवन जीते हैं। 

समर्स की अवधारणा यमुना से समझी जा सकती है। कभी दिल्ली की यमुना की तरह गंदी रहने वाली टेम्स नदी इसलिए साफ हो पाई, क्योंकि वहां स्वच्छ तकनीक का इस्तेमाल होने लगा। मगर विकासशील देशों में ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि उनके पास इतनी उन्नत तकनीक नहीं है। संसाधनों की सीमा है।

बाजार को तवज्जो देने से नहीं मिलेगा प्रदूषण का समाधान
जब तक हम बाजार को तवज्जो देंगे, प्रदूषण का समाधान नहीं निकाल पाएंगे। कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर बात करने की जगह हमें चर्चा इस पर करनी चाहिए कि यह बढ़ा क्यों? उस रास्ते को देखना होगा, जिस पर दुनिया आगे बढ़ रही है। मसलन, वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर तमाम देश सहमत दिख रहे हैं, मगर क्या किसी ने यह सोचा कि जब हम 2 डिग्री सेल्सियस तक भी नहीं पहुंचे हैं और ‘अनियंत्रित मौसम की चरम अवस्था’ को भुगतने को अभिशप्त हैं, तब जब उस मानक तक पहुंचेगे, तब क्या होगा? इसीलिए अच्छा होगा कि अभी जितना वैश्विक तापमान है, लक्ष्य उससे कम रखा जाए।

आगे का रास्ता
यहां महात्मा गांधी को हमें याद करना चाहिए। गांधीजी अहिंसा की बात करते थे। इसमें सिर्फ दूसरे इंसान के साथ नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ भी हिंसा (दोहन, खनन आदि) न करने की गुजारिश शामिल थी। वह कहा करते थे कि प्रकृति सबकी जरूरत तो पूरी कर सकती है, लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती। लोगों को जागरूक करके ही प्रदूषण को थामा जा सकता है। गांधीजी के मुताबिक, हमें साधारण जीवनशैली अपनानी होगी। अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी। खपत कम करनी होगी। स्वहित की जगह परहित को तवज्जो देनी होगी। और, समाज का हर संभव ख्याल रखना होगा। यदि हम ऐसा कर सकें, तभी बात बनेगी।

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Ashutosh Mishra

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