बिहार की राजनीति और 2025 का विधानसभा चुनाव

बिहार में इसी वर्ष अक्टूबर माह में विधानसभा का चुनाव होना है। सभी राजनीतिक दल खुद को नीति, नीयत और नेतृत्व के

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बिहार में इसी वर्ष अक्टूबर माह में विधानसभा का चुनाव होना है। सभी राजनीतिक दल खुद को नीति, नीयत और नेतृत्व के स्तर पर संगठित कर जनता को लुभाने और यों कहें कि विश्वास जीतने का भरसक प्रयास इन दिनों कर रहे हैं।

आगामी चुनाव में परिणाम की संभावनाओं के मद्देनजर जब हम परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं तो सबसे पहला निष्कर्ष निकलकर आता है कि बिहार देश के उन कुछ गिने-चुने राज्यों में शामिल है जहां लगातार 30 वर्षों से राष्ट्रीय राजनीतिक दल सत्ता की ड्राइविंग सीट पर नहीं हैं बल्कि उनके सक्रिय सहयोग से क्षेत्रीय दल मुख्य भूमिका में हैं। वर्ष 1990 के बाद बिहार की राजनीति ऐसी बदली कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ही सत्ता के केन्द्र में हैं।

वर्ष 1990 वैसे तो बिहार ही नहीं बल्कि देश की राजनीतिक दिशा और दशा बदलने वाला साल रहा जब एक ओर स्व0 विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई वहीं दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राम जन्मभूमि आंदोलन परवान चढ़ा। इन दो मुद्दों ने बिहार की राजनीतिक परिस्थित को 360॰ पलट दिया। इन दोनों मुद्दों का विरोध करने के कारण वर्ष 1990 से पहले एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी बिहार की राजनीतिक परिदृश्य से क्रमश: ओझल होती गई। मंडल आयोग जनित राजनीति के रथ पर सवार लालू प्रसाद यादव बिहार में पिछड़ी जातियों, दलितों के एकमात्र जननेता के रूप में उभरे। साथ ही भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के सोमनाथ से अयोध्या जा रही रथयात्रा को समस्तीपुर में रोककर, आडवाणी को गिरफ्तार कर लालू प्रसाद यादव मुसलमानों के भी एकछत्र नेता के रूप में उभरे वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी भी मुस्लिम तुष्टिकरण और राम मंदिर के इर्द-गिर्द हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अपना जनाधार बढाती रही। परिणामस्वरूप बिहार की राजनीति दो ध्रुवीय हो गई। यह क्रम 1995 तक चला।

वर्ष 1995 के बाद चारा घोटाला, अलकतरा घोटाला, अपराध, अपहरण, जातीय नरसंहार जैसे अनगिनत मुद्दों पर भाजपा लालू प्रसाद यादव को लगातार घेरने का प्रयास करती रही लेकिन लालू प्रसाद यादव के पक्ष में हुई सामाजिक गोलबंदी से कोई भी मुद्दा लालू यादव का बाल भी बांका नहीं कर सकी।

लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को नीतीश कुमार के रूप में एक ऐसा साथी मिला जिसने लालू यादव के पिछड़ों की राजनीति में सेंधमारी की। नीतीश कुमार और भाजपा की दोस्ती से मिली इन दोनों दलों को सफलता से प्रभावित और प्रेरित होकर कई प्रभावशाली जातीय क्षत्रप जैसे स्व रामविलास पासवान, शरद यादव आदि ने भी लालू यादव को छोड़कर अपनी अलग पहचान कायम किया। ऐसे ही परिस्थित में एक ओर जहां लालू यादव भ्रष्टाचार के आरोप में घिरते गए वहीं उनका सामाजिक आधार भी संकुचित होता गया और भाजपा गठबंधन नीतीश कुमार के नेतृत्व में मजबूत होती गई। नीतीश कुमार लालू यादव के एकमात्र विकल्प के रूप में उभरे। लालू प्रसाद यादव क्रमश: केवल यादव और मुसलमान के नेता बनकर रह गए। यही कारण है कि 2005 में सत्ता से एक बार बाहर क्या हुए, फिर अपने बूते कभी वापस नहीं आए।
इसी क्रम में यह भी ध्यान रखने योग्य है कि जिस दौरान लालू प्रसाद से विभिन्न सामाजिक समूह अलग हो रहे थे सभी समूह के अपने अलग-अलग नेता भी विकसित हो रहे थे। कुर्मी, कुशवाहा के नेता नीतीश कुमार, दलितों के रामविलास पासवान सहित हर जाति समूह के अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न क्षत्रप अपना आधार विकसित कर रहे थे। बीच के दिनों में कुछ ही दिनों के लिए सही लेकिन महादलित और अतिपिछड़ा बाला नीतीश कुमार का सोशल इंजीनियरिंग काफी सफल रहा। लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव के आगे पीछे नीतीश कुमार की पलटने वाली छवि और हिन्दू वोट बैंक के उभार, नरेन्द्र मोदी की लाभार्थी समूह वाली राजनीति ने नीतीश के लाभ को तब अधिक सीमित कर दिया जब वे बीजेपी के साथ नहीं होते थे। आज का वर्तमान परिदृश्य उसी घटनाक्रम का परिणाम है जब पासवान जाति चिराग पासवान के साथ, मुसहर जीतनराम मांझी के साथ, पासी समाज अशोक चौधरी और उदय नारायण चौधरी के साथ, कुशवाहा समाज उपेन्द्र कुशवाहा और सम्राट चौधरी के साथ, सवर्ण, वैश्य आदि भाजपा के साथ, अति पिछड़ा समाज यादव और मुसलमान गोलबंदी के खिलाफ एकजुट है।

उपरोक्त परिदृश्य के मद्देनजर जब हम 2025 की संभावना ढूंढते हैं तो एक बात स्पष्ट है कि परिणाम पर सामाजिक गोलबंदी का ही सर्वाधिक प्रभाव होगा।

राजनीतिक दलों और गठबंधन को यदि आधार मानें तो मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच होना तय है। लेकिन प्रशांत किशोर की जन सुराज इसे कुछ क्षेत्रों में त्रिकोणीय बनाने का प्रयास कर रही है। एक पोलिटिकल स्ट्रेटेजिस्ट के तौर पर अपनी योग्यता और क्षमता साबित कर चुके प्रशांत किशोर एक नेता के तौर पर कितने सफल होंगे यह साबित होना शेष है। चूंकि बिहार की राजनीति न तो वैचारिक है न ही मुद्दा आधारित, यह पूर्णतया व्यक्तिवादी है। प्रशांत किशोर के पास मुख्यमंत्री का स्वीकार्य चेहरा न होना उन्हें निराश कर सकता है। सीमांचल जैसे डेमोग्राफी बाले क्षेत्र में ओवेसी की पार्टी भी पिछली बार की तरह ही अपना जलवा एक बार पुन: दिखा सकती है।

अंतत: मुख्य मुकाबला दोनों प्रमुख गठबंधन के बीच ही होना है। ऐसी स्थिति में जो गठबंधन ज्यादा संगठित होगी उसकी संभावना बेहतर होगी। दोनों गठबंधन में कुछ ऐसे पेंच हैं जिससे इनको सावधान रहने की आवश्यकता है।

सबसे पहले यदि महागठबंधन को देखें तो इसमें सबसे बड़ा दल होने के नाते राजद और तेजस्वी के समक्ष दो प्रमुख चुनौतियां हैं, पहला लालू-राबड़ी के 15 वर्षीय शासनकाल के दौरान अराजकता की यादें और दूसरा, उनके आधार समर्थक वर्ग की आक्रामकता। चूंकि राजद का आधार वोट मुस्लिम और यादव दोनों का संख्याबल और आक्रामकता से समाज के अन्य वर्ग भयभीत होकर उनके खिलाफ एकजुट हो जाते हैं जिससे परिणाम का प्रभावित होना स्वाभाविक परिणति है। इन दोनों परिस्थतियों से महागठबंधन विशेषकर राजद को निबटना होगा।
वहीं एनडीए के समक्ष भी मुख्य तौर पर दो चुनौती है। पहला, अपने पांच दलों के गठबंधन को एकजुट रखना और दलों के बीच रणनीतिक समन्वय बनाकर मतदाता के पास जाना और दूसरा, नीतीश कुमार के गिरते स्वास्थ्य (शारीरिक और मानसिक) और खराब होती छवि से पार पाना।
वैसे चुनाव तो संभावनाओं का भी खेल है, कभी भी कुछ भी हो सकता है जैसे नीतीश कुमार की हठधर्मी व्यवहार के कारण एनडीए से कभी भी किसी सहयोगी के बाहर होने की संभावना लगातार बनी रहेगी। वहीं महागठबंधन में भी राहुल गांधी के अनिश्चित, अतिमहत्वाकांक्षी और अनपेक्षित व्यवहार से राजद और तेजस्वी यादव को भी सावधान रहने की आवश्यकता है। ये दो ऐसे पात्र हैं जो बिहार विधान सभा चुनाव 2025 को प्रभावित करने की पात्रता रखते हैं।

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