किसानों की चेहरे खिले, इस बार खरीफ की पैदावार बेहतर रहने की उम्मीद
मौसम विभाग ने सामान्य बारिश होने का लगाया है पूर्वानुमान, पक्षियों के चहचहाने और अंडे देने से भी किसान लगा रहे अच्छी बारिश का अनुमान
इस मानसून बारिश झमाझम होगी। इससे फसल लहलहाएगी। किसान भी खुशहाल होगा। हां, अप्रैल में बारिश की पहली बूंद पड़ने तक लू भी झुलसाएगी। इससे इस बीच बिजली की मांग जबरदस्त रहेगी। ऐसा देश के मौसम विभाग ने कहा है। आइए, समझते हैं कि अच्छी बारिश और खेती-किसानी के ताल्लुकात को, जिससे किसान खुश हो उठता है….

मुरैला मारई जाबे रे छोटी ननदी
एक हाथ लेले हउवे बांस के चंगेरिया
दुसरके तलवरिया रे छोटी ननदी
मुरैला मारई जाबे रे छोटी ननदी
सातो रे भइया के एकई है दुलरिया
देखि देखि कईसन बोले पापी बोलिया
कटरिया ज्यों निकारो रे छोटी ननदी
मुरैला मारई जाबे रे छोटी ननदी
यह ग्रामीण भारत का लोकगीत है, जो धान की रोपाई के वक्त गाया जाता है। किसानों के पैर तब घुटने तक कीचड़ में सने होते हैं। बारिश की बूंदे भी अनवरत झरती रहती हैं। धार नहीं टूटती इसकी। लेकिन इनको न बारिश की परवाह है, न भीग जाने का। इसके उलट बारिश की गति बढ़ने से उनके हाथ भी तेज चलने लगते हैं। सुर और संगीत का अनूठा तालमेल रहता है। यूं भी, बारिश के साथ किसानों का उत्साह जुड़ा हुआ है।
दरअसल, भारत में श्रम उत्सव है और खेती-किसानी संस्कृति। वह भी ऐसी संस्कृति है, जिसके अपने देव हैं, अपना लोक है, श्रम वीरों की सेना है, त्योहार है, गीत है, राग है और सजीव भाव हैं। यह सब खेत में फसल की तरह ही रोपे जाते हैं, वैसे ही बढ़ते, हरियाते और पकते हैं। ‘मानव श्रम और दैवीय कृपा’ इसी दो आधार पर भारत का कृषि कर्म होता रहा है। यहां किसी ने यांत्रिक क्रांति का इंतजार नहीं किया। अब जब यांत्रिक क्रांति हो गई है और मानव श्रम व दैवीय कृपा से निर्भरता कम हुई है तब भी इसे पूरी तरह से नहीं स्वीकारा जा चुका है।
अपने देश में खेती बारिश पर ही निर्भर है। देश का एक बड़ा भू-क्षेत्र नहरों के जाल से अछूता है। जहां सिंचाई के दूसरे साधन हैं भी, वहां सिंचाई असमान व अनियोजित है। नतीजतन मानसून पर ही निर्भरता ज्यादा है। तभी इस बार अच्छी बारिश के संकेतों से देश का किसान अभी से खुश है।
मौसम विभाग (आईएमडी) ने बताया है कि मानसून एक्सप्रेस समय पर है। इस बार बारिश पर्याप्त होगी। आईएमडी प्रमुख मृत्युंजय महापात्र ने मंगलवार, 15 अप्रैल को मीडिया को बताया कि 2025 में मानसून सीजन; जून से सितंबर, के बीच सामान्य से ज्यादा बारिश होने की संभावना है। 1971-2020 की अवधि के 87 सेंटीमीटर के दीर्घावधि औसत (एलपीए) का 105 प्रतिशत रहने का अनुमान है। अच्छी बारिश से किसान और किसानी दोनों को फायदा होगा। जून और जुलाई में मानसूनी बारिश से बुवाई व रोपाई समय से हो सकेगी।
आईएमडी प्रमुख ने बताया कि अप्रैल से जून तक लू कहर बरपाएगी। ज्यादा गर्मी पड़ने से पावर ग्रिड पर अतिरिक्त लोड रहेगा। इससे जल संकट उत्पन्न हो सकता है। वहीं, मानसून के दौरान लद्दाख, पूर्वोत्तर और तमिलनाडु में कम बारिश होगी। एल-नीनो और इंडियन ओशियन डाइपोल स्थितियां सामान्य रहने की उम्मीद है।
किसानों का तर्जुबा भी यही कहता है कि बारिश अच्छी रहनी है। विज्ञान और गूगल के इस युग में ग्रामीण किसान बारिश का अंदाजा पक्षियों के अंडों और उनकी चहचहाहाट से लगाता है। इसी में एक पक्षी है, टिटिहरी। किसान इस पक्षी के अंडे देने की जगह और उनकी संख्या से बारिश का अनुमान लगाते हैं। माना जाता है कि टिटिहरी को बारिश का पूर्वाभास पहले हो जाता है। टिटिहरी अगर अंडा किसी ऊंचे स्थान देती है तो यह अच्छी बारिश का संकेत है। जबकि निचले हिस्से में अंडे मिलने से कम। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। पूरी शिद्दत से किसान इसमें यकीन भी करता है। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस पर मिलने वाली रिपोर्ट सकारात्मक है।
मानसून पर इतनी निर्भरता
भारतीय खेती पर करीब दो खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। वहीं, खेती में इस्तेमाल होने वाला कम से कम 50 फीसदी पानी बारिश से मिलता है। इसमें भी करीब 70 फीसदी बारिश उत्तर पश्चिम मानसून के दौरान ही होती है। तभी इसे भारतीय कृषि की जीवन रेखा कहा गया है। करीब 80 करोड़ की आबादी गांवों में है। वह कृषि पर ही निर्भर हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कृषि का हिस्सा 15 फीसदी है। अगर मानसून कमजोर रहता है तो देश के विकास और अर्थव्यवस्था भी पिछड़ती है। सामान्य से ऊपर मानसून रहने पर कृषि उत्पादन और किसानों की आय दोनों में बढ़ोतरी होती है। इससे ग्रामीण बाजारों में उत्पादों की मांग को बढ़ावा मिलता है।
मानसून का देश के कृषि जीडीपी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। खराब मानसून उत्पादन व आपूर्ति संबंधी समस्या पैदा करता है और खाद्य मुद्रास्फीति भी बढ़ती है। खराब मानसून सूखे जैसी स्थिति पैदा कर सकता है, जिससे ग्रामीण घरेलू आय, खपत और आर्थिक विकास प्रभावित होते हैं। एक खराब मानसून न केवल तेजी से बढ़ते उपभोक्ता वस्तुओं की मांग को कमजोर करता है, बल्कि आवश्यक खाद्य स्टेपल्स के आयात को भी बढ़ाता है। इससे सरकार को कृषि ऋण छूट जैसे उपाय करने के लिये भी मजबूर करता है। सरकार पर वित्त का दबाव बढ़ जाता है। एक सामान्य मानसून कृषि उत्पादन को बढ़ता है, जो ग्रामीण आय को बढ़ता है और उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च को भी बढ़ा देता है। अच्छे मानसून का जल विद्युत परियोजनाओं पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
भारतीय खेती और सिंचाई
. कृषि योग्य भूमिः 156 मिलियन हेक्टेयर
. कुल सिंचित क्षेत्रः 48 प्रतिशत
. सकल बुआई क्षेत्रः 198 मिलियन हेक्टेयर
. सिंचित क्षेत्र का;
—61.58 फीसदी कुंओ और नलकूप से।
—24.54 फीसदी नहरों से।
—2.94 फीसदी तालाब से।
—10.91 फीसदी अन्य से।
वैकल्पिक सिंचाई से भूजल स्तर को खतरा
भारत में सिंचित के कृत्रिम साधनों का जाल है। यह बड़े राज्यों के काफी हिस्से को कवर करता है लेकिन सिंचाई का कृत्रिम तरीका भूजल स्तर के लिए खतरनाक है। सिंचित क्षेत्रों में नदियों से काटकर निकाली गई नहरों का योगदान मात्र 24 प्रतिशत है, जबकि 61.58 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रों को ट्यूबवेल और कुंओं का पानी मिलता है जोकि भूजल है। सबसे अधिक सिंचित राज्य पंजाब का तो अधिकतर क्षेत्र ही ट्यूबवेल के भरोसे है, पांच नदियों वाले इस राज्य में नहरों से सिंचाई का प्रतिशत बेहद कम है। वहीं, अकेले 19 फीसदी सिंचाई कुओं से होती है। जबकि बरसाती पानी के संग्रह से सिंचित क्षेत्र में मात्र 2.94 फीसदी भूमि की प्यास बुझती है।
वहीं, असिंचित क्षेत्र में किसान पंपिग सेट के माध्यम से भूजल का प्रयोग सिंचाई में करते हैं। यह सभी तरीके न सिर्फ सरकारी खर्च व किसानों पर बोझ बढ़ाते हैं, घटते भूजल स्तर को भयावह भविष्य की ओर धकेल रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि मानसून का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। और मानसून में होने वाली देरी या कम वर्षा से पूरी कृषि व्यवस्था डगमगा जाती है।
खरीफ की फसलों को होगा फायदा
देश के ज्यादातर हिस्सों में बरसात की स्थिति को ध्यान में रखकर ही धान की रोपाई करते हैं। समय से पहले मानसून की दस्तक ने किसानों के चेहरे पर खुशी ला देती है। इस बार भी यही होने की उम्मीद है। किसान अभी बारिश की आस में दिन काट रहे हैं। मौसम विभाग के मुताबिक, इस बार की मानसूनी बारिश कृषि पर अच्छा असर डालेगी। सामान्य बारिश होने से खरीफ की फसलों की सिंचाई की दिक्कत नहीं होगी। इसका असर उत्पादन पर भी पड़ेगा।

खरीफ फसलों का बढ़ा रकबा
केंद्र सरकार के मुताबिक, 2021 में खरीफ की बुवाई का रकबा 16.4 फीसदी बढ़ चुका है। 2020 में 67.8 लाख हेक्टेयर में खरीफ फसलों की बुवाई हुई थी। कृषि मंत्रालय की ओर से कहा गया कि 2020 की अच्छी बारिश से 2021 की कमजोर मानूसन वाले साल की सिंचाई का काम चल गया था। वजह यह कि नमी मौजूद थी। इससे फसलों के लिए बहुत बेहतर स्थिति है। 2021 में 10 साल के औसत की तुलना में देश के जलाशय 21 फीसदी तक ज्यादा भरे हुए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इस साल की अच्छी बारिश दुबारा किसानों को फायदा पहुंचाएगी।
उधर, मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2020 की तुलना में 2021 में दालों का रकबा 51 फीसदी तक बढ़ा है। दाल की बुवाई 8.68 लाख हेक्टेयर में हुई। जबकि धान की बुवाई का रकबा 7.6 फीसदी बढ़कर 38.80 लाख हेक्टेयर हो गया था। सरकार किसानों को खरीफ फसल की बुआई के लिए प्रेरित करना चाहती है। वजह यह कि अब देश के कई इलाकों में सिंचाई की सुविधा मौजूद है। इससे देश में दालों और तिलहन की उपज बढ़ाने में मदद मिलेगी और आयात पर निर्भरता कम होगी।
इससे पहले कृषि मंत्रालय ने 2021 में एक बयान में कहा कि गर्मियों की फसल यानी खरीफ सीजन की बुवाई की प्रगति बहुत अच्छी है। रबी की फसल भी अच्छी रही। पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, गुजरात , मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में खरीफ फसलों की बुवाई बेहतर तरीके से हो रही है। खरीफ फसलों की खेती में मक्का, बाजरा और रागी का रकबा पिछले साल से 27 फीसदी बढ़ा है। इसके साथ ही तिलहन का रकबा भी बढ़कर 9.53 लाख हेक्टेयर हो गया है।

खेती, मानसून और लोक
गांवों की विशेषता है कि यहां सब कुछ लयबद्ध है, इसीलिए गाली भी गाई जाती है। लोक की अभिव्यक्तियां काव्यात्मक ही रही हैं। फिर, दैनंदिन काम में आने वाले ज्ञान-विज्ञान को भला कैसे उस लय से अछूता रखा जा सकता है। भारत का लोक अपनी उपयोगिता को एक सुर और लय में बांधकर रखता है, जिसे हम पद कह सकते हैं। इन पदों में गूढ़ ज्ञान को बेहद सहजता, रोचकता व सरलता से बखाना जाता है। गांवों में मौसम, नीति और कृषि के ज्ञान-सूत्रों के अनेकों पद प्रचलित हैं, जिनसे बच्चा-बच्चा जानता है। इन पदों की खास बात यह है कि इसका ज्ञान किताबी न होकर प्रत्यक्ष है। जैसे बादल किस रंग का उठेगा तो बारिश कैसे होगी, हवा किधर से चले तो बारिश होगी, पशु-पक्षियों के व्यवहार से मौसम का अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है। इन पदों की प्रासंगिकता ऐसी है कि इन्हें श्रुति परंपरा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी ने संजोये रखा है। इन्हीं पदों में अक्सर एक नाम सुनने को मिलता है-लोककवि घाघ का।
वैसे तो बहुत चतुर आदमी को भी घाघ कह दिया जाता है। लेकिन घाघ एक लोक कवि थे और उनकी पहुंच हिन्दी-जनपदों में लोक मानस की गहराई तक है, उनकी कविता पांच-पांच कोस पर चल कर अपना चोला कुछ-कुछ बदल लेती है, जिस जनपद में गयी वहीं की बोली में ढल गयी। वैसे उनकी कहावतें असम, बंगाल, उड़ीसा में भी प्रचलित हैं। इनकी जन्मभूमि कन्नौज के पास चौधरी सराय नामक ग्राम बताई जाती है। कहा जाता है अकबर ने प्रसन्न होकर इन्हें सराय घाघ बसाने की आज्ञा दी थी, जो कन्नौज से एक मील दक्षिण स्थित है। घाघ एक अच्छे कृषि पंडित और व्यावहारिक अनुभवी पुरुष थे। उनका नाम विशेषकर उत्तरी भारत के कृषकों के अधरों पर रहता है। चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ की कहावतें उनका पथ प्रदर्शन करती हैं।
पुराने समय में जब आधुनिक तकनीकों का प्रचलन नहीं था, उस समय मौसम आधारित भविष्यवाणियां सटीक होती थीं, जो अनुभवी लोगों द्वारा समय-समय पर की जाती थीं। ये कहावतें मौखिक रूप में भारत भर में प्रचलित हैं। कृषि, जनजीवन, मौसम पर आधारित इनकी कहावतें न केवल उस समय प्रासंगिक थीं, बल्कि आज भी उनका उतना ही महत्व है। महान किसान कवि घाघ की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथ-प्रदर्शन करती आई हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश के गांवों में ये कहावतें आज भी काफी लोकप्रिय हैं। जहां वैज्ञानिकों के मौसम के अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीण आज भी यह मानते हैं कि घाघ की कहावतें लगभग सत्य साबित होती हैं। घाघ की कुछ कहावतें इस प्रकार हैं।
सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।
यदि रोहिणी भर तपे और मूल भी पूरा तपे तथा जेठ की प्रतिपदा तपे तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी बिन बरसे ना जाय।।
यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
भादों की छठ चांदनी जो अनुराधा होय।
ऊबड़-खाबड़ बोय दे अन्न घनेरा होय।।
यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है।
सावन सुक्ला सप्तमी जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै नाहीं समौ सुकाल।।
यदि सावन सुदी सप्तमी को आधी रात के समय बादल गरजे और पानी बरसे तो झुरा पड़ेगा, न बरसे तो समय अच्छा बीतेगा।
असुनी नलिया अन्त विनासै।
गली रेवती जल को नासै।।
भरनी नासै तृनौ सहूतो।
कृतिका बरसै अन्त बहूतो।
इस तरह से घाघ कृषि, मौसम, नीति और लोक ज्ञान के महा पंडित हैं, और लोक जीवन में उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।