पटना: देश में पिछड़ों की राजनीति के सबसे अहम किरदार और भरोसेमंद सेक्युलर चेहरे के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने वाले 77 साल के लालू प्रसाद यादव की जब शनिवार, 5 जुलाई पटना के बापू सभागार में 13वीं बार लगातार राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी की गई, तो समूचा हॉल हर्ष ध्वनि और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। गोपालगंज के फुलवरिया में आजादी के दूसरे साल जन्मे लालू ने 29 साल की उम्र में ही वर्ष 1977 में लोकसभा की सदस्यता हासिल कर ली थी।
लालू की ताजपोशी से समर्थकों और राज्य की जनता को यह संदेश देने की भी कोशिश की गई कि भले ही सजायाफ्ता होने के कारण एमपी-एमएलए बनने के लिए उनके चुनाव लड़ने पर रोक है, मगर वह पार्टी संगठन तो चला ही सकते हैं। सामाजिक न्याय का नारा गढ़कर दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को जबान देने वाले लालू यादव समाज के एक वर्ग को हमेशा चुभते रहे हैं।
बुढ़ापे और बीमारी की थकन के बावजूद ताजपोशी के साथ ही लालू प्रसाद यादव ने जोरदार भाषण भी दिया और बेटे तेजस्वी को बड़ी जिम्मेवारी देने की बात कही। उन्होंने चुनावी टिकट को लेकर भी साफ कर दिया कि उम्मीदवारी के मामले में पैरवी-सिफारिश से ज्यादा सर्वे की रिपोर्ट काम करेगी। तेजस्वी ने भी अपने भाषण में यह स्पष्ट किया है कि गणेश परिक्रमा करने से टिकट मिलने वाली नहीं है। उन्होंने काम करने वाले नेताओं को ही आगे बढ़ाने का इरादा व्यक्त किया है। इसके साथ ही पलायन-रोजगार पर फोकस करते हुए उन्होंने सबकी भागीदारी सुनिश्चित किए जाने का वादा भी किया है। पार्टी के रैंक एंड फाइल में इस बात पर कोई मतभिन्नता नहीं है कि लालू यादव के बाद तेजस्वी ही पार्टी की धुरी हैं।

राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के लिए भरा था पर्चा
इससे पूर्व राष्ट्रीय निर्वाचन पदाधिकारी डॉ. रामचंद्र पूर्वे ने उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होने का प्रमाण पत्र भी सौंपा। लालू यादव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए 23 जून को नामांकन का पर्चा भी भरा था। दल के किसी और सदस्य द्वारा चुनाव का पर्चा नहीं भरे जाने के कारण पार्टी के गठन के 29 वें स्थापना दिवस के मौके पर राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी तय थी।
2020 में मिले राजद को मिले थे 23 फीसदी वोट
वर्ष 2020 के चुनावों के दौरान राजद ने 23 फीसदी वोटों के साथ 243 सदस्यों वाली विधानसभा में 75 सीटें हासिल की थीं। विधानसभा में 19 सदस्यों वाली कांग्रेस और वाम दलों के समर्थन के बावजूद राजद सत्ता के लिए जरूरी सीटों के आंकड़ों को छू नहीं सकी थी। अगले चंद महीनों के बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में राजद को बेहतर परिणाम हासिल करने की उम्मीदें हैं।
जंगलराज के टैग से मुक्ति की खुलने लगी राह
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की स्वास्थ्य वजहों से सत्ता पर कमजोर होती पकड़, सरकार में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के हावी होने से जुड़े आरोपों पर हो रही खुलेआम चर्चा और बिहार में बढ़ते अपराध के ग्राफ से राजद को चुनाव में राजनीतिक फायदे मिलने की उम्मीदें दिखने लगी थीं। खासकर पटना के एक बड़े उद्योगपति गोपाल खेमका की 4 जुलाई की रात एक अपराधी द्वारा सरेराह हत्या कर दिए जाने और ठीक उसी समय सिवान में भी तलवार से तीन व्यक्तियों का एकसाथ कत्ल कर दिए जाने के बाद कानून व्यवस्था के सवाल पर घिरती सरकार और सत्ताधारी दल जहां बैकफुट पर नजर आ रहे हैं, वहीं लालू-राबड़ी राज के साथ जुड़े जंगलराज के टैग से मुक्ति की राह भी बनती हुई नजर आने लगी है। चुनावों के ऐन पहले बिहार में बोर्ड निगमों में नियुक्ति के लिए चुने गए पात्रों के इत्तेफाक से बड़े नेताओं के दामाद निकल आने के कारण भी राजद को परिवारवाद के आरोपों से निबटने का कारगर हथियार मिल गया है।
लालू 1997 में बने थे चारा घोटाला के आरोपी, इन सियासी हालातों में राजद का हुआ गठन
वैसे, पार्टी प्रमुख के लिए चुनौतियों का सिलसिला राजद के गठन के साथ ही शुरू हो गया था। 1997 में जब जनता दल के भीतर से ही 950 करोड़ रुपये के चारा घोटाले में आरोपी बनने के बाद लालू यादव पर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का दबाव बनने लगा तो उनके सामने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी मुश्किल आ खड़ी हुई थी।
वर्ष 1995 में दूसरी बार जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने थे तो उनके दल (जनता दल) के विधायकों की संख्या 324 सदस्यों वाली संयुक्त बिहार की विधानसभा में 167 थी। कांग्रेस को 29 सीटें मिली थीं और सीपीआई के पाले में 26 सीटें थीं, जबकि दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा का सिर्फ 41 सीटों पर ही कब्जा था। नीतीश कुमार की अगुवाई वाली समता पार्टी को तब सात सीटें मिलीं थीं और सीपीआई-एमएल 6 सीटों पर काबिज था।
धुर सियासी नजरिए से देखा जाए तो राष्ट्रीय जनता दल के गठन, 5 जुलाई 1997 से पहले, लालू प्रसाद यादव के साथ जनता दल का भी सुनहरा दौर था। लालू प्रसाद जनता दल के अध्यक्ष व बिहार के मुख्यमंत्री थे और उनके पार्टी के नेता प्रधानमंत्री। सियासत में इससे बढ़कर और क्या चाहिए। लेकिन यह वह दौर भी था, जिसमें जब लालू प्रसाद यादव की सियासी मुश्किलें बढ़ रही थीं।
एसआर बोम्मई का नाम हवाला में आने के बाद लालू प्रसाद यादव को जनता दल की कमान मिली थी। बातचीत में लालू कहते भी थे, हवाला ने जनता दल उनके हवाले कर दिया। वह उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री थे। वहीं, उनकी ही पार्टी के नेता एचडी देवगौड़ा पीएम के पद पर आसीन थे। चारा घोटाले से पैदा हुई लालू प्रसाद यादव की सियासी मुश्किलें इसी समय बढ़ीं।वाजपेयी सरकार ने खोली चारा घोटाले की फाइल, देवगौड़ा ने बढ़ाया आगे
चारा घोटाले की फाइल वैसे तो 13 दिन की अटल बिहार वाजपेयी की सरकार ने खोली थी, लेकिन सीबीआई ने इसमें चार्जशीट दाखिल करने का फैसला पीएम देवगौड़ा के समय में लिया।
पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल अपनी आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिसक्रिएशन’ में कई बार जिक्र करते हैं कि देवगौड़ा लालू का पसंद नहीं करते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है, ‘मुझे पता चला कि लालू प्रसाद यादव एक बार पीएम निवास पर ढाई घंटे तक बैठे रहे, जब तक देवगौड़ा ने सीबीआई डायरेक्टर को वहां बुलवा नहीं लिया था।’
माना यह भी जाता है कि लालू की नाराजगी की वजह से ही देवगौड़ा का प्रधानमंत्री का पद गंवाना पड़ा था। इसमें लालू को सियासी ताकत इसलिए भी मिल पाई कि सीताराम केसरी और लालू प्रसाद के बीच की समझ बहुत मजबूत थी।लालू सार्वजनिक तौर पर उनको चाचा केसरी कहते थे। इसी दौर में कांग्रेस अध्यक्ष का पद नरसिम्हा राव की जगह सीता राम केसरी को मिल गया। इंद्र कुमार गुजराल ने लिखा है, निजी बातचीत में कभी सीता राम केसरी ने पीएम की पोस्ट पर अपनी पसंदगी या नापसंदी जाहिर नहीं होने दी, लेकिन देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापसी के बाद वह सरकार बनाने की दिलचस्पी जरूर दिखाई।
देवगौड़ा की जगह संयुक्त मोर्चा से पीएम बने इंद्र कुमार गुजरात को लालू प्रसाद की पसंद बताया गया। फिर भी, इस समय भी लालू पर सीबीआई का शिकंजा कसता गया। उस वक्त के सीबीआई प्रमुख जोगिंदर सिंह ने मीडिया को बताया था, हम लोगों के पास जो सबूत हैं, उसके आधार पर बिहार के सीएम लालू प्रसाद यादव के खिलाफ चार्ज शीट दाखिल करेंगे। हम उसकी प्रक्रिया पूरी कर रहे हैं।
दौरा करके लौटने पर लालू को मिली जानकारी
वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी पुस्तक ‘द ब्रदर्स बिहारी’ में लिखते हैं, ‘लालू प्रसाद यादव उस दिन सुबह अपने परिवार के साथ एक आयोजन के लिए गांव से निकले थे। वापस लौटने पर जब उन्होंने टीवी खोला तो दिन की सबसे बड़ी खबर पर नजर पड़ते ही वह भड़क गए। उनने पीएम गुजराल को फोन कर कहा, क्या हो रहा है यह सब? यह क्या बकवास करवा रहे हैं? एक पीएम को हटाकर आपको पीएम बनवाया और आप भी वही काम कर रहे हैं।’
संकर्षण ठाकुर के मुताबिक, लालू प्रसाद यादव ने 27 अप्रैल 1997 की उस रात संयुक्त मोर्चा के तमाम बड़े नेताओं; चंद्र बाबू नायडू, ज्योति बसु, इंद्रजीत गुप्ता, शरद यादव, को फोन किया। सबका एक ही जवाब था, अगर चार्जशीट होती है तो सीएम पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
इंद्र कुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, जब लालू प्रसाद यादव का फोन आया तो मैंने कहा कि मुझे भी अभी कुछ मिनट पहले जानकारी मिली है। मैं फोन रखता, तब तक लालू प्रसाद यादव के सहयोगी प्रेम चंद्र गुप्ता और उनके वकील कपिल सिब्बल आ गए।’
गुजराल ने लिखा है, उनको पीएम बने एक ही सप्ताह हुआ था। उन्होंने न तो घोटाले की फाइल देखी, न ही पदभार संभालने के बाद सीबीआई के किसी अधिकारी से मिले। यही बात उन्होंने प्रेमचंद्र गुप्ता और कपिल सिब्बल के सामने दोहरा दी।
उधर, सीबीआई के कसते शिकंजे के साथ लालू प्रसाद के कई सहयोगी साथ छोड़ रहे थे। 17 जून 1997 को बिहार के राज्यपाल एआर किदवई ने लालू प्रसाद यादव के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने की इजाजत दे दी। फिर भी, लालू प्रसाद यादव इस्तीफा न देने पर अड़े रहे।
लालू प्रसाद यादव की जिद से संयुक्त मोर्चा भी संकट में घिर रहा था। गठबंधन की सहयोगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पीएम गुजराल पर लालू प्रसाद यादव के इस्तीफे का दबाव बनाया। वहीं, जनता दल के अंदर भी लालू प्रसाद यादव की मुखालफत बढ़ रही थी। रामविलास पासवान और शरद यादव ने उनके इस्तीफे की मांग की। ऐसा न होने की सूरत में केंद्र सरकार पर लालू सरकार को बर्खास्त करने का दबाव बनाया।

जनता दल अध्यक्ष पद के चुनाव में सियासत
सियासी उठापटक के बीच वक्त जनता दल के अध्यक्ष पर का चुनाव आ गया। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव ने लालू प्रसाद यादव को चुनौती दी। अपनी राजनीतिक यात्रा ‘गोपालगंज टू रायसीना’ में राष्ट्रीय जनता दल के गठन की वजह बताते हुए लालू प्रसाद यादव लिखते हैं, ‘जुलाई 1997 में पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव होना था। मैं समझ नहीं पाया कि आखिर शरद जी ने किन वजहों से आखिरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फैसला लिया। मैं अपने नेतृत्व में पार्टी को जीत दिला रहा है। बिहार में दूसरी बार सरकार बन गई थी। केंद्र में सरकार थी। उनको मेरा साथ देना था, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी अध्यक्ष पद पर मुझे हटाकर काबिज होने की हो गई। यहां मेरा धैर्य खत्म हो गया और मैंने सोच लिया कि अब काफी हो गया है।’
लालू प्रसाद यादव के सहयोगी रघुवंश प्रसाद सिंह ने चुनाव का निर्वाचन अधिकारी बनाया था। शरद यादव इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए और रघुवंश प्रसाद सिंह की जगह मधु दंडवते को चुनाव कराने की जिम्मेदारी दी गई। संकर्षण ठाकुर अपनी किताब में लिखते हैं, ‘चार जुलाई को आईके गुजराल ने अपने घर पर सभी सहयोगी नेताओं को खाने पर बुलाया। लालू प्रसाद यादव भी इसमें शामिल हुए थे। उन्होंने पार्टी में ही गुजराल से कहा, आप शरद यादव से कहिए कि वह चुनाव से हट जाएं। मैं पार्टी नहीं तोडूंगा। लेकिन आईके गुजराल यह प्रस्ताव शरद यादव के सामने कहने की स्थिति में नहीं थे।’
संकर्षण ठाकुर ने आगे लिखा है, लालू प्रसाद यादव ने गुजराल को दूसरा प्रस्ताव यह दिया कि वह मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। लेकिन अध्यक्ष पद नहीं छोड़ेंगे। यह अलहदा बात है कि तब तक यह तय हो गया था कि उनको सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ेगा।
पांच जुलाई को राष्ट्रीय जनता दल के गठन का एलान
इसके अगले दिन बिहार सदन में लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल के गठन का ऐलान किया। जनता दल के 22 सांसदों में से 16 सांसद आरजेडी में शामिल हो गए। छह राज्यसभा सांसदों ने भी लालू प्रसाद यादव का नेतृत्व किया। इस नाम का सुझाव रामकृष्ण हेगड़े ने दिया था। इसका जिक्र भी लालू प्रसाद यादव ने अपनी पुस्तक ‘गोपालगंज टू रायसीना’ में किया है।
पार्टी के गठन के बाद की पहली मीडिया ब्रीफिंग में पार्टी के विस्तार से जुड़े सवाल पर लालू प्रसाद यादव ने कहा कि आरजेडी ओरिजिनल पार्टी होगी। मजे की बात यह कि पीएम गुजराल की कैबिनेट में शामिल आरजेडी की तीन मंत्रियों; रघुवंश प्रसाद सिंह, कांति सिंह और जय नारायण निषाद, को नहीं हटाया। जबकि यह संयुक्त मोर्चा सरकार का हिस्सा नहीं था। इसकी वजह भी थी। लालू प्रसाद यादव ने पीएम गुजराल को राज्य सभा में बिहार से भिजवाया था। इसी वजह से जब उन्होंने सीबीआई प्रमुख जोगिंदर सिंह को पद से हटाया तो यह भी कहा कि उन्होंने लालू प्रसाद यादव को संतुष्ट करने के लिए ऐसा किया था।
बीबीसी हिंदी को दिए गए एक इंटरव्यू में पार्टी के उपाध्यक्ष तनवीर हसन बताते हैं, ‘कोई विकल्प नहीं बचा था। लालू प्रसाद यादव के पास इतना बड़ा जनाधार था, लेकिन साजिश करके उनको फंसाया गया। लालू प्रसाद यादव को फंसाने का खेल कोई 1996-97 में अचानक नहीं आया। उनकी राजनीति को खत्म करने की कोशिशें तभी से शुरू हो गईं थी, जब उन्होंने राम रथ यात्रा के खिलाफ स्टैंड लेकर लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया था।’ इससे सहमति जताते हुए शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लालू ने जो स्टैंड ब्राह्मणवाद के खिलाफ लिया, जो स्टैंड बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ लिया, उस स्टैंड की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है।’
यहां तक तो ठीक था। लेकिन सबसे ज्यादा हैरानगी लालू प्रसाद यादव के 24 जुलाई के फैसले से तब हुई, जब उन्होंने इस्तीफा देकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार को मुख्यमंत्री बनवा दिया। बिहार को बेशक पहली महिला सीएम मिली, लेकिन लालू प्रसाद यादव के इस रणनीतिक फैसले की खूब आलोचना हुई। फिर भी, सत्ता की चाभी लालू प्रसाद के हाथों में ही बनी रही। 30 जुलाई को उन्होंने चारा घोटाले मामले में सरेंडर किया और उसके बाद उन पर कानूनी कार्रवाई का दौर चलता रहा।

(फोटो सोशल मीडिया)
फिलवक्त जनसुराज की मुहिम ने बढ़ाया टेंशन
राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नई पारी के दौरान लालू यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती मजबूत वोट बैंक के रूप में विकसित किए गए अपने सामाजिक आधार यथा यादव-मुस्लिम समीकरण के साथ दलितों-पिछड़ों के एक खास हिस्से को अपने पक्ष में बनाए रखकर तेजस्वी को सीएम की कुर्सी तक पहुंचाना है।
बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में लालू यादव के लाल का रास्ता रोकने के लिए भाजपा-जदयू की अगुवाई वाले पांच दलों के एनडीए गठबंधन ने भी व्यूह रचना शुरु कर दी है। इसके अलावा असदउद्दीन ओवैसी की मुसलमानों के बीच होने वाली असरदार तकरीरों और जनसुराज की पढ़ाई-रोजगार के वादों से जुड़ी मुहिम और वृद्धों-लाचारों की पेंशन वृद्धि के वायदे ने भी राजद का सिरदर्द बढ़ा दिया है।
इस तबके में राजद का मजबूत आधार
एक दल के रूप में 29 साल का सफर पूरा कर चुके राजद का मुख्य आधार अब मुस्लिम-यादव समीकरण के आसपास ही दिखाई देता है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि बिहार की सियासत में अति पिछड़ी और दलित जातियों के अलग-अलग क्षत्रपों मसलन, नीतीश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी, जीतन राम मांझी, चिराग पासवान, पशुपति कुमार पारस आदि के उभर आने के कारण जातीय आधार पर वोटों की गोलबंदी तेज हो गई है।
हालांकि, 1990 के दशक में लालू यादव के उभार के समय उन्हें दलित और पिछड़ी जातियों का भरपूर समर्थन मिला था। वर्ष 1995 के चुनावों के दौरान जब लालू यादव की तरफ से कथित तौर पर भूरा बाल (उच्च वर्ग की चार प्रमुख जातियों भुमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला का सांकेतिक अक्षर ) साफ करो का जुमला उछला था तो सदियों से सामंती दमन का सामना कर रही दलित और पिछड़ी जातियों में यह नारा बेहद लोकप्रिय हुआ था और लालू यादव की उनमें पैठ भी गहरी हुई थी।
इसी समय सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में लालू यादव और उनके दल को पिछड़ों-गरीबों में मान्यता मिली थी। बाद के दिनों में राजनीतिक भागीदारी के सवाल पर दलित-पिछड़ों के बीच राजद का आधार सिमटता गया। आज बेशक तेजस्वी यादव अपने दल में ए टू जेड की हिस्सेदारी की बात करते हों, और चुनावी टिकट में इस फार्मूले का ध्यान भी रखा हो, मगर सिमटते जमीनी आधार के बीच जमीन पर यह फार्मूला कितना हिट होगा, यह बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों में दिखेगा।
- स्पेशल इनपुट: बीबीसी, गोपालगंज टू रायसीना, द ब्रदर्स बिहारी, मैटर्स ऑफ डिसक्रिएशन