बस्तर: पहाड़ी का अभियान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की उस घोषणा का हिस्सा है, जिसमें 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद खत्म करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बल अभियान चला रहे हैं। आइए, नक्सल मामलों के एक्सपर्ट वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र नाथ राय से नक्सलवाद की पूरी प्रकृति को समझते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में राजस्थान पत्रिका के लिए 2019 में रिपोर्टिंग करते हुए इन्होंने बेहद संजीदगी से बहुत इसका अध्ययन किया।
भूगोल और समाज बनी नक्सलवाद की उर्वर जमीन
किसी भी काम की कामयाबी व नाकामी क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थिति, सामाजिक ताने-बाने के साथ मौजूदा परिवेश से तय होती है। मसलन, कश्मीर के अलावा राजस्थान, पंजाब और गुजरात की सीमा भी पाकिस्तान से लगी है, लेकिन कश्मीर के अलावा दूसरे सीमावर्ती क्षेत्रों में चाहकर भी पाकिस्तान आतंक नहीं फैला सकता। वह इसलिए कि यहां लोगों को बरगलाना आसान नहीं है। फिर, भूगोल भी मददगार नहीं है। कश्मीर के अलावा किसी दूसरे सीमावर्ती राज्य न तो निर्जन हैं, न दुर्गम। भौगोलिक स्थिति छिपने के लिए महफूज नहीं है।
कुछ ऐसा ही नक्सलवाद के साथ भी है। इसने वहीं पर अपना पैर पसारा, जहां पर छिपने की उपयुक्त जगह हो अर्थात पहाड़ी और जंगल हो। दूसरा वहां अशिक्षा ज्यादा हो। लोग सहज हों और उन्हें अपनी बात को बल से भी समझाया जा सके और डरा-धमकाकर भी अपने कामों को कराया जा सके।
छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली, जहां भी देखें, लगभग एक तरह की पृष्ठभूमि देखने को मिलेगी। इसने नक्सलवाद के प्रसार में मदद की। तभी नक्सलियों ने अपने प्रसार वाले क्षेत्र में शिक्षा को आगे नहीं बढ़ने दिया। बच्चों को स्कूल जाने से रोका। सड़क की सुविधा वहां तक नहीं पहुंचे, इसके लिए तमाम विस्फोटक प्रयास किये। बावजूद इसके, जैसे-जैसे सरकार ने उन इलाकों में अपनी पहुंच बनाई, दोनों तरफ से गोलियों की तड़तड़ाहट सुनने को मिली और अंत में सरकार भारी पड़ती गयी।
भूगोल से ही कर्रेगुट्टा बना नक्सलियों का गढ़
बीजापुर जिले के कर्रेगुट्टा की स्थिति कभी ऐसी थी कि वहां सिर्फ नक्सलियों का ही अड्डा था। जो लोग भी थे, उनको नक्सलियों के हर आदेश का पालन करने की मजबूरी थी। वहां की भौगोलिक स्थितियां ऐसी थी कि दिन में ही भयावह लगता था, लेकिन अब धीरे-धीरे वहां नक्सल समाप्ति की ओर है। हर कदम पर नक्सलियों ने बंकर बना रखे थे। सुरक्षाबलों ने नक्सलियों के कुल 214 बंकरों को नष्ट किया है। माओवादियों के करीब 4 तकनीकी इकाइयों को तबाह किया गया है. जिसमें 4 लैथ मशीन और नक्सलियों का बीजीएल लॉन्चर और बीजीएल सेल शामिल है।
450 आईडी किया बरामद
जवानों ने आईईडी को मौके से बरामद कर नष्ट किया है। नए डीमाइनिंग मशीनें जवानों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। आईईडी बरामद करने की मशीनें अपडेटेड हो रही है। छत्तीसगढ़ के डीजीपी अरूण देव गौतम का कहना है कि आईडी और बीजीएल से हमारी सेना को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। हम लोगों ने आईईडी और बीजीएल बनाने की पूरी विधा को समाप्त कर दिया है, जहां तक पूरे पहाड़ को घेर कर रखने की बात है तो हम लोगों की यह कोशिश है कि यहां पर हम लोगों की आवाजाही फिर से शुरू हो सके। इसके लिए काम किया जा रहा है। इसके लिए हम कोशिश कर रहे हैं। पहले यहां मंदिर में लोग पूजा करने के लिए आते थे. जब से यहां नक्सलियों के कैंप बने तब से यह गतिविधि रुक गई। हम फिर से इसे चालू करेंगे।

सबसे बड़ा आपरेशन रहा कोर्रेगुट्टा का
छत्तीसगढ़ के डीजीपी और सीआरपीएफ के डीजी ने बताया कि प्राप्त सूचनाओं के आधार पर 21 अप्रैल को नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन लॉन्च किया गया। यह अभियान अब तक का सबसे बड़ा एवं व्यापक नक्सल विरोधी अभियान है। इसमें राज्य एवं केन्द्र की विभिन्न एजेंसियों का मिलकर काम करने की नजीर पेश की है।
इस अभियान का मकसद नक्सलियों के खिलाफ मजबूत एक्शन लेना था। 21 अप्रैल से 11 मई के दौरान कुल 21 मुठभेड़ों में 16 वर्दीधारी महिला माओवादी समेत कुल 31 वर्दीधारी माओवादियों के शव और 35 हथियार बरामद किए गए। इनमें नक्सलियों के तीन शव 24 अप्रैल, एक शव पांच मई को, बाइस 07 मई को तथा पांच 08 मई को बरामद किए गए। इस ऑपरेशन में भारी संख्या में नक्सलियों के हथियार बरामद किए गए। इसमें 450 आईईडी रिकवर, 818 बीजीएल सेल, 899 बंडल कार्डेक्स, नक्सलियों की 4 टेक्निकल यूनिट, 4 लेथ मशीनों को बरामद कर नष्ट किया गया, भारी मात्रा में राशन और दैनिक सामग्री मिला है।
तीन सालों तक पांच सौ लोगों की खाने की थी व्यवस्था
घने जंगल के बीच में नक्सलियों ने वह सब व्यवस्था कर रखी थी, जो शहरों में भी हर जगह आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकता। उनके पास राशन इतना था, जिससे पांच सौ लोग तीस साल तक खा सकते हैं। इस तरह की व्यवस्था उनके जनताना सरकार ने बना रखी थी। पूरे रास्ते आईआईडी लगी होने से ऐसी जगहों पर पुलिस के लिए पहुंचना आसान नहीं था। नक्सली इसे बखूबी जानते भी थे। फिर भी, जवान पहुंचे और माओवादियों के नापाक इरादों को खाक में मिला दिया।
इस तरह की हालत महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में भी है, जहां पहाड़ियां तो उतनी नहीं है, लेकिन जंगल घने और ऊंचाई व गहराई के कारण स्थितियां फोर्स के लिए अनुकुल नहीं रहती। भाषा भी फोर्स के लिए मुश्किलें पैदा करती हैं।
(क्रमशः)