कहानी शुरू होती है 18 मार्च, 1974 से। बसंत की हल्की सर्द सुबह, घड़ी की सुई आठ बजने का संकेत कर रही थी। तभी रामबहादुर राय पैदल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में दाखिल हुए। संघ कार्यालय पटना शहर के कदम कुआं में पड़ता था। वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बिहार प्रभारी थे। उनको छात्रों के आंदोलन में विधानसभा का घेराव करने जाना था।
जिस वक्त रामबहादुर राय संघ कार्यालय पहुंचे, केएन गोविंदाचार्य बाहर लॉन में बैठे थे। गोविंदाचार्य उस वक्त संघ के विभाग प्रचारक थे। संघ में यह पद प्रांत से नीचे और जिले से ऊपर होता है।
दुआ-सलाम के बाद रामबहादुर राय ने जल्द निकलने की बात कही। गोविंदाचार्य बोले, ‘देखो भाई, आज वहां देर होगी। पता नहीं क्या हो, कब फ्री होना हो सके। ऐसा करिए कि भरपेट नाश्ता करके निकलिए। दिन का कुछ ठिकाना नहीं रहेगा आप लोगों का।’
उन्होंने कहा, ‘ठीक है।’
नाश्ते में पराठा-भुजिया बनने व खाने में देर हो गई। अब अगर वो रिक्शे से जाते तो और देरी होती। तब गोविंदाचार्य ने अपनी पुरानी स्कूटर निकाली और दोनों आंदोलन स्थल की तरफ चल पड़े। राजभवन व विधानसभा के बीच आर-ब्लॉक चौराहे पर उन्होंने रामबहादुर राय को छोड़ दिया। छात्रों का प्रदर्शन यहीं चल रहा था। तय हुआ कि शाम को कार्यालय पर मुलाकात होगी।
वापसी में विधानसभा के मुख्य गेट निकल गए। आगे बढ़ते ही पुनाईचक मोड़ पर उन्होंने देखा कि प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से स्वयंसेवक आए हैं। छात्र भी विद्यार्थी परिषद के बैनर तले जुटे हैं। आत्मीयता के कारण, प्रणाम पाती के लिए वह वहीं रुक गए। चौक के एक किनारे अपनी स्कूटर खड़ी कर दी और बातचीत होने लगी। थोड़ी देर में ही खबर मिली कि दूसरी तरफ पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया है। फिर, करीब 11:30 बजे पता चला कि छात्र संघ अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव लाठी चार्ज में घायल हो गए हैं। इससे आंदोलन में उत्तेजना फैली। तभी टीयर गैस भी छोड़ी गई।
उन्होंने सोचा कि अब लौटना ठीक नहीं है। कोई घायल हो जाए तो देखना भी पड़ेगा। 12:30 बजे गोलीबारी हुई। आगजनी की भी खबर आई। वह परिचितों को बचाते, राह दिखाते वहीं मुख्य गेट, उसके सामने के मैदान, पनाई चौक के बीच घूमते रहे। जब सब शांत हो गया, तब करीब 1:45 बजे वह संघ कार्यालय लौटे। लेकिन उनके पहुंचने से पहले संघ कार्यालय पर एक मैसेज पहुंच गया था। सचिवालय में काम करने वाले स्वयंसेवक ने कहलवा भेजा था कि गोविंदाचार्य व रामबहादुर के नाम से मीसा वारंट जारी हुआ है। चार बजे के करीब पुलिस का छापा पड़ेगा। किसी को कार्यालय में नहीं रहना है।
गोविंदाचार्य वहां से हटकर मोहल्ले में ही निहालचंद नाम के एक स्वयंसेवक के घर चले गए। चार बजे उनके ही बच्चे को कहा, ‘देख आओ, कार्यालय पर क्या हो रहा है।’
लौटकर उसने बताया, ‘दफ्तर पर बड़ी संख्या में पुलिस मौजूद है।’ वह समझ गए कि संदेश ठीक-ठीक मिला था।
दरअसल, 1971 के बाद देश का सियासी माहौल तेजी से बदल रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बहुत प्रभावी हो चली थीं। 72 में संजय गांधी का भी सियासत में पदार्पण हो गया था। बिहार में ललित नारायण मिश्रा बहुत मजबूती से सत्तासीन थे। इस समय तक सत्ता का अहंकार कांग्रेस की केंद्र व प्रदेश की सरकारों में साफ-साफ दिखता था।
इसी दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘Supported Struggle’ का सिद्धांत विकसित कर लिया था। इससे वह कांग्रेस के साथ होने लगे थे। फिर भी, संघर्ष की स्थितियां विपक्ष से राजनीतिक स्तर पर भी उभर रही थीं, और सामाजिक स्तर भी। लेकिन इस वक्त विपक्ष के पास राम मनोहर लोहिया व दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग नहीं थे। जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमए सरीखे लोग इस खालीपन को भरने की कोशिश करते दिख रहे थे। इन्हीं परिस्थितियों में बिहार आंदोलन की नींव पड़ी।
बिहार आंदोलन में नए-नए लोगों की सक्रियता रही। एबीवीपी के अखिल भारतीय मंत्री राम बहादुर राय जून 1973 में पटना पहुंच गए थे। उस वक्त वह बिहार के प्रभारी थे। उन्होंने पहल करके समाजवादी युवजन सभा व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बीच पटना छात्र संघ चुनाव में मेल कराया। इससे 1973 के पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में लालू प्रसाद अध्यक्ष बने, सुशील मोदी महामंत्री और रविशंकर प्रसाद सह मंत्री। विपक्ष का पैनल बुरी तरह हार गया था।
दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष अरुण जेटली चुने गए थे। चुनाव जीतने के बाद जनवरी 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की ओर से राष्ट्रीय छात्र नेता सम्मेलन बुलाया गया। इसमें देश की विशिष्ट अराजक स्थितियों को ध्यान में रखकर सत्ता का विरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की मांग का प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव के फॉलोअप में तय हुआ कि हर प्रदेश में ऐसा ही छात्र नेता सम्मेलन हो। इसमें प्रदेश भर के छात्र नेता शिरकत करें।
इसी कड़ी में पटना का सम्मेलन 17-18 फरवरी को हुआ। इसमें छात्र संघर्ष समिति का गठन हुआ। समिति ने प्रदेश में छात्रों के लिए कार्यक्रम तय किए। खुद छात्र नेताओं ने पूरे प्रदेश में अपना दौरा रखा। आंदोलनात्मक गतिविधि के तौर पर तय हुआ कि 18 मार्च को विधानसभा का घेराव कर राज्यपाल को सदन में प्रवेश नहीं करने देना है।
हालांकि, थोड़ा आगे बढ़ते ही सम्मेलन टूट भी गया था। वामदलों के छात्र संगठनों ने अलग राह पकड़ी। इन लोगों ने छात्र युवा संघर्ष मोर्चा बना लिया। इस धड़े ने भी प्रतिस्पर्धी राजनीति के तहत प्रदेश में कार्यक्रम करने शुरू किए। लेकिन कार्यशैली की वजह से समाजवादी युवजन सभा व एबीवीपी की स्वीकृति ज्यादा रही। यह सब खुले हुए लोग थे।
वातावरण की दृष्टि से वामदली छात्र संघ के आंदोलन का परोक्ष लाभ भी इन्हीं लोगों मिला। वाम दलीय मोर्चे ने सोची-समझी रणनीति के तहत 16 मार्च को हर जिले में धरना प्रदर्शन तय किया। उनकी कोशिश 18 मार्च को एबीवीपी व समाजवादी युवजन सभा के संघर्ष की हवा निकालने की थी। लेकिन हुआ एकदम उलटा। वामदलों के प्रदर्शन में जहां-जहां लाठी चार्ज हुआ, प्रतिरोध स्वरूप वहां से बड़ी संख्या में लोग उमड़कर 18 मार्च के आंदोलन के लिए पटना पहुंचे। और जिस तरह का रवैया पुलिस का रहा, उससे छात्रों के इस आंदोलन ने जेपी आंदोलन की नींव तैयार कर दी थी।
- (क्रमशः)