नई दिल्ली: तुलाने विश्वविद्यालय के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय शोध टीम ने खुलासा किया है कि विश्व के लगभग आधे मैंग्रोव (Mangrove) जंगल अल नीनो (El Nina) और ला नीना (LA Nina) जैसी जलवायु घटनाओं से प्रभावित हो रहे हैं। इस अध्ययन के निष्कर्ष नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। शोध 2001 से 2020 तक के दो दशकों के सैटेलाइट डेटा पर आधारित है। मैंग्रोव, जो खारे या खारे-मीठे पानी वाले तटीय क्षेत्रों में घने जंगलों के रूप में उगते हैं, समुद्री तूफानों से सुरक्षा, कार्बन भंडारण, और मछली पालन जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में योगदान देते हैं। हालांकि, यह शोध दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ये जंगल अत्यधिक संवेदनशील हो गए हैं।
अल नीनो और ला नीना का वैश्विक प्रभाव
यह पहला ऐसा अध्ययन है जो दर्शाता है कि अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) विश्व भर के मैंग्रोव के विकास और विनाश के पैटर्न को कैसे प्रभावित करता है। पहले, इन जलवायु घटनाओं का प्रभाव केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित माना जाता था, जैसे 2015 में उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की 1,200 मील लंबी तटरेखा पर 4 करोड़ से अधिक मैंग्रोव पेड़ों का सूख जाना। शोध के प्रमुख लेखक झेन झांग ने बताया, “हम यह समझना चाहते थे कि क्या ये घटनाएं केवल स्थानीय हैं या वैश्विक पैटर्न का हिस्सा हैं।” उनके शोध से पता चला कि ईएनएसओ का प्रभाव मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्रों पर बार-बार और बड़े पैमाने पर पड़ता है।
अल नीनो और ला नीना क्या हैं?
अल नीनो और ला नीना, ईएनएसओ के दो विपरीत चरण हैं, जो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में होने वाली मौसमी घटनाएं हैं। अल नीनो के दौरान प्रशांत महासागर के पूर्वी और मध्य भागों में समुद्र का तापमान बढ़ता है, जबकि ला नीना में तापमान कम होता है। ये बदलाव बारिश, तूफान, और तापमान के पैटर्न में उतार-चढ़ाव का कारण बनते हैं, जिससे बाढ़, सूखा, जंगल की आग, और कोरल ब्लीचिंग जैसी घटनाएं होती हैं। शोध में यह भी पाया गया कि ये जलवायु घटनाएं मैंग्रोव की सेहत पर गहरा असर डालती हैं।

‘सीसॉ’ प्रभाव का खुलासा
अध्ययन में एक अनोखा ‘सीसॉ’ प्रभाव देखा गया। अल नीनो के दौरान पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में मैंग्रोव जंगलों को भारी नुकसान होता है, जबकि पूर्वी प्रशांत में इनका विकास होता है। ला नीना के दौरान यह पैटर्न उलट जाता है, यानी पश्चिम में विकास और पूर्व में हानि। शोधकर्ताओं ने समुद्र के जलस्तर में बदलाव को इस प्रभाव का प्रमुख कारण बताया। उदाहरण के लिए, अल नीनो के दौरान पश्चिमी प्रशांत में समुद्र का स्तर अस्थायी रूप से कम हो जाता है, जिससे मिट्टी में लवणता बढ़ती है और मैंग्रोव पेड़ सूखने लगते हैं।
मैंग्रोव का महत्व और खतरा
मैंग्रोव विश्व के सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हैं, जो तटीय समुदायों को तूफानों से सुरक्षा, कार्बन भंडारण, और आजीविका के साधन प्रदान करते हैं। शोधकर्ता प्रोफेसर डैनियल फ्रीस के अनुसार, ये जंगल पर्यावरण की नाजुक परिस्थितियों पर निर्भर हैं और जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। इनकी रक्षा के लिए जलवायु प्रभावों को बेहतर ढंग से समझना आवश्यक है। एक अध्ययन के अनुसार, मैंग्रोव विश्व को प्रति वर्ष 85,500 करोड़ डॉलर के बाढ़ नुकसान से बचाते हैं।

मैंग्रोव का नुकसान और भविष्य
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट द वर्ल्ड्स मैंग्रोव्स 2000-2020 के अनुसार, पिछले दो दशकों में 677,000 हेक्टेयर मैंग्रोव नष्ट हो चुके हैं। पिछले 40 वर्षों में विश्व के 123 देशों में 20% मैंग्रोव खत्म हो गए हैं। भारत में, बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान, अन्नामलाई विश्वविद्यालय, और अन्य संस्थानों के शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि 2070 तक भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर मैंग्रोव आवास सिकुड़कर भूमि की ओर खिसक सकते हैं, जिसका कारण बारिश और समुद्री जलस्तर में बदलाव है।