बलूच नेता मीर ने की आजाद बलूचिस्तान की घोषणा

बलूच नेता मीर यार बलूच का कहना है कि तुम मारोगे, लेकिन हम निकलेंगे। क्योंकि हम नस्ल बचाने के लिए निकले हैं। आओ, हमारा साथ दो। पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान में बलूच लोग सड़कों पर हैं। यह उनका फैसला है कि बलूचिस्तान अब पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है।

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नई दिल्ली: पाकिस्तान नए सिरे से संकट में घिरता नजर आ रहा है। बुधवार, 14 मई को एक बड़े बलूच नेता मीर यार बलूच ने पाकिस्तान से बलूचिस्तान की आजादी की औपचारिक घोषणा कर दी है। मीर ने दशकों की हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन को इसकी वजह बताया है। सोशल मीडिया फोरम एक्स पर मीर लिखा कि बलूचिस्तान के लोगों ने अपना राष्ट्रीय फैसला ले लिया है। दुनिया को अब चुप नहीं रहना चाहिए। मीर ने भारत समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय से समर्थन की अपील भी की है।
बलूच नेता ने पीओके पर भारत के रुख का भी समर्थन किया है। मीर ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पाकिस्तान पर इस क्षेत्र को खाली करने के लिए दबाव बनाने की गुजारिश की है। मीर ने कहा कि 14 मई को बलूचिस्तान पाकिस्तान से पीओके खाली कराने के लिए कहने के भारत के फैसले का समर्थन करता है। इसी संदर्भ में आइए समझते हैं, बलूचिस्तान के अतीत से वर्तमान तक की पूरी कहानी….

बलूचिस्तान का अतीत सुंदर, वर्तमान दे रहा घाव
बलूचिस्तान दक्षिण एशिया, ईरानी पठार और मध्य एशिया के संगम पर स्थित है। यह ऐसी जमीन है, जहां प्राचीन सभ्यताएं उदित हुईं, लुप्त भी। इनकी विरासत में छोड़ी गई समृद्ध और जटिल सांस्कृतिक छवियों से बलूच आबादी को विशिष्ट पहचान मिली। इलाका बीहड़ है। इसमें दुर्गम पर्वत, शुष्क रेगिस्तान और अरब सागर की तट रेखा शामिल है। इलाका मानव सभ्यता के शुरुआती चरणों से ही अपने बसावट की कहानी कहता है।

पुरातात्विक अवेशष बताते हैं कि बलूचिस्तान मेहरगढ़ सभ्यता से जुड़ा है। सातवीं सहस्राब्दी में फली-फूली नव पाषाण कालीन बस्ती बोलन दर्रे में स्थित रही। यहां प्रारंभिक कृषि कौशल, परिष्कृत शिल्पकला और जटिल सामाजिक संरचनाओं के विकास का प्रभावशाली प्रमाण मिलते हैं। बस्ती उस जगह पर विकसित हुई, जो विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों के बीच एक अहम संपर्क मार्ग था। इसके बाद बलूचिस्तान के लोगों और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच हुए संपर्क के प्रमाण भी मिलते हैं।

जब दुनिया कांस्य युग से लोहे के युग में जा रही थी, तब भी बलूचिस्तान व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को केंद्र था। चौथी सदी ईसा पूर्व में सिकंदर के पूर्व के सैन्य अभियानों ने इस भूमि पर क्षणिक प्रभाव डाला। बाद में मौर्य साम्राज्य के शिलालेख इस क्षेत्र में मिलते हैं। सातवीं और आठवीं शताब्दी ईस्वी में जब अरब सेनाएं यहां पहुंचीं, तो इस्लाम की शिक्षाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। इसने बलूचिस्तान को इस्लामी विश्व की जटिल संरचना में पिरो दिया।

आज जिसे बलूच पहचान के तौर पर जाना जाता है, उसने 14वीं सदी के आसपास आकार लेना शुरू किया। यह वह दौर था, जब इस इलाके में उत्तर-पश्चिम से बलूच जनजातियों का प्रवास और उनका क्रमिक समेकन हुआ। यह घुमंतू पशुपालक समुदाय उत्तर-पश्चिमी ईरानी भाषा बोलते थे। यहां पहुंचने के क्रम में बलूच पहले से मौजूद आबादी पर हावी होते गए और उन्होंने एक जटिल और दीर्घकालिक जनजातीय ढांचा स्थापित किया। वह भी ऐसा, जो जटिल रक्त-संबंधों, परंपराओं और संरक्षित सम्मान संहिता पर आधारित था।

यूरोपीय उपनिवेशवाद के आगमन से पहले बलूचिस्तान ने स्वायत्त जनजातीय महासंघों और शक्तिशाली खानतों के बीच एक गतिशील संतुलन कायम कर रखा था। इनमें कालात की खानत सबसे अहम और दीर्घजीवी बलूच राजनीतिक सत्ता रही। सदियों तक कालात के खानों ने आधुनिक बलूचिस्तान के विशाल और भौगोलिक रूप से विस्तारित क्षेत्रों पर विभिन्न स्तरों की संप्रभुता का प्रयोग किया। वह क्षेत्र की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में भी कुशलता से सत्ता संभालते रहे। पड़ोसी फारसी और अफगान साम्राज्यों के साथ इनने जटिल रिश्ते बनाए। अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए चतुर कूटनीति का सहारा लिया। यह स्वशासन का समृद्ध इतिहास और स्वतंत्र बलूच सत्ता की विरासत बलूच लोगों की सामूहिक स्मृति में गहराई से अंकित है।

जनजातीय प्रणाली की जटिल संरचना में सरदारों की स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली भूमिका थी। यह सिर्फ सामाजिक एकता प्रदान करने का माध्यम भर नहीं थी, स्थानीय प्रशासन का एक व्यावहारिक ढांचा भी पेश करती थी। यह एक ऐसा ढांचा था, जिसने आगे चलकर पाकिस्तान की केंद्रीय सत्ता के खिलाफ बगावती रुख अपनाए रखा।

1947-48 की नियति-निर्णायक वर्ष
1947 में दक्षिण एशियाई इतिहास में एक निर्णायक मोड़ आया। पूरे उपमहाद्वीप में उथल-पुथल हरी। ब्रिटिश भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप दुनिया के नक्शे पर उभरा। इसने करोड़ों लोगों की नियति को सदा के लिए बदल दिया। इसी में बलूच भी थे। इनका भविष्य इस समय सबसे ज्वलंत और त्रासद बहस का विषय बन गया। नतीजतन पाकिस्तान में जबरन एकीकरण के रूप में सामने आया, जिसे आज भी विवादित माना जाता है।

आजादी के बाद नवगठित पाकिस्तान ने जिस हिसाब से अपने क्षेत्रीय स्वरूप और प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया, बलूच राष्ट्रवादी नेताओं ने आजाद देश की मांग की। खान ऑफ कालात की ऐतिहासिक स्वायत्तता और बलूच लोगों की विशिष्ट सांस्कृतिक-भाषाई विरासत के आधार पर उन्होंने एक संप्रभु राष्ट्र की कल्पना की। यह उनकी पहचान का रक्षक होगा और उन्हें आत्म निर्णय का अधिकार भी देगा। इसी मकसद से पाक सरकार और बलूच नेताओं के बीच कई दौर की राजनीतिक वार्ताएं हुईं, लेकिन इनसे समाधान नहीं निकला। बातचीत शुरू से ही अविश्वास, विरोधाभासी दृष्टिकोण और बुनियादी हितों के टकराव में फंसी रही।

1948 में बलूच रियासतों को पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। इस एकीकरण ने विवाद के बीज बोए। बलूच नेता आरोप लगाते हैं कि इस विलय की संधियां स्वैच्छिक सहमति का परिणाम नहीं थीं, बल्कि इन्हें राजनीतिक दबाव, चालाकी पूर्ण कूटनीति और बलोच जनता की आजादी की मांग की पूर्ण उपेक्षा के माध्यम से थोप दिया गया।

कालात के खान, जो सबसे प्रभावशाली बलोच शासक और ऐतिहासिक स्वायत्तता के प्रतीक थे, ने शुरुआत में ही एकीकरण का विरोध किया। उन्होंने स्वतंत्र बलूचिस्तान के गठन या अफगानिस्तान या भारत के साथ गठजोड़ जैसे विकल्पों की संभावनाएं भी तलाशीं। परंतु पाकिस्तान के भारी राजनीतिक दबाव और सैन्य हस्तक्षेप की आशंका से वह पाकिस्तान में विलय के लिए मजबूर हुए। यह ऐसा कदम था, जिसे आज भी कई बलूच उनके राष्ट्रवादी स्वप्नों के घोर विश्वासघात के रूप में देखते हैं।

इस एकीकरण को बलोच समुदाय के बड़े हिस्से ने दखलंदाजी और आत्मनिर्णय के अधिकार के माना। यही नजरिया आज तक जो बलोच-पाक संबंधों की जड़ों में लावा बनकर धधक रहा है। विलय के तुरंत बाद बलूच नेताओं ने विरोध शुरू कर दिया। उस वक्त राष्ट्रवादी भावनाएं राजनीतिक मांगों और शांतिपूर्ण याचिकाओं के माध्यम से सामने आईं। बाद में जैसे-जैसे पाक सरकार की नीतियों से उनका मोहभंग बढ़ता गया, ये भावनाएं धीरे-धीरे सशस्त्र आंदोलनों का रूप लेने लगीं। प्रारंभिक विद्रोह यद्यपि सीमित क्षेत्रीय स्तर पर केंद्रित थे और भविष्य के व्यापक उग्र आंदोलनों जितने संगठित नहीं थे, लेकिन यह पूरी दुनिया के लिए स्पष्ट चेतावनी थे कि बलोच आत्म निर्णय की लड़ाई लंबी, खूनी और जिद्दी होगी।

उपेक्षा का बोझ बलूचिस्तान
1948 में विवादास्पद विलय के बाद से, बलूचिस्तान पाकिस्तान के केंद्रीकृत संघीय ढांचे के भीतर गहरी राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा।क्षेत्रफल की दृष्टि से यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है, लेकिन जनसंख्या में कम होने के कारण इसकी संसद में प्रतिनिधित्व क्षमता पंजाब जैसे अधिक जनसंख्या वाले प्रांतों की तुलना में अत्यधिक सीमित रही है। जन सांख्यिकीय असंतुलन ने राष्ट्रीय निर्णय प्रक्रिया में बलूचिस्तान की हिस्सेदारी को सीमित किया।

बलूच नेताओं के दो समूह हैं। पहला, वह पाक के भीतर राजनीतिक स्वायत्तता चाहते हैं। वहीं, दूसरा समूह पूर्ण आजादी के हक में है। फिर भी, दोनों समूह के नेता इस बात पर सहमत हैं कि बलूचिस्तान को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित रखा गया है। वह इस बात पर जोर देते हैं कि प्रांत से जुड़े मूलभूत निर्णय इस्लामाबाद से जाते हैं। इनमें न तो बलूच जनता साझीदार होती है, न ही उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों की राय मायने रखती है। यह ऊपर से नीचे तक का शासन मॉडल बलूच जनता में यह गहरी धारणा पैदा करता है कि उनके अधिकारों की सुनवाई न केवल अपर्याप्त है, बल्कि उन्हें संघीय व्यवस्था में जानबूझकर नजरअंदाज किया जाता है।

पिछले कई दशकों से बलूच राजनीति का एक केंद्रीय मुद्दा अधिक प्रांतीय स्वायत्तता की मांग रहा है। बलूच नेताओं का कहना है कि प्रांत की सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, सांस्कृतिक विविधताओं और भौगोलिक चुनौतियों के लिए एकरूप राष्ट्रीय नीतियां कारगर नहीं हैं। बलूचिस्तान को अपनी स्थानीय विशेषताओं के अनुरूप नीति निर्माण का अधिकार मिलना चाहिए।

बलूचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का मुद्दा सबसे विवादास्पद रहा है। बलूच दावा करते हैं कि प्राकृतिक गैस भंडार, तांबा, सोना जैसे बहुमूल्य खनिज, और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण समुद्री तटों का दोहन संघीय सरकार और इस्लामाबाद की आर्थिक प्रभुत्वशाली शक्तियों की तरफ से हो रहा है। जबकि इनसे पैदा होने वाले राजस्व और लाभ का अंश मात्र हिस्सा ही स्थानीय बलूच जनता तक पहुंचता है। इस असमानता को बलूच अपने साथ किए जा रहे आर्थिक अन्याय के रूप में देखते हैं।

राजनीतिक प्रक्रिया से इस गहरी बेदखली और सत्ता के केंद्रीय तंत्र से कटे होने की भावना ने बलूच समाज में राज्य के प्रति व्यापक और स्थायी पराएपन को जन्म दिया है। यह राजनीतिक उपेक्षा उन राष्ट्रीय आंदोलनों, चाहे शांतिपूर्ण हों या सशस्त्र, को बल प्रदान करती है, जो मानते हैं कि बलूच जनता के वैध राजनीतिक अधिकार मौजूदा संघीय व्यवस्था में सुरक्षित नहीं हो सकते। हर बार जब बलूचिस्तान से किसी सुधार की मांग उठी, उसे या तो अनदेखा किया गया या बलपूर्वक दबा दिया गया। इससे संघर्ष लगातार और गहरा होता गया।

बलूचिस्तान में स्वायत्तता की लंबी लड़ाई केवल प्रशासनिक अधिकारों तक सीमित नहीं है। यह एक जनसंख्या के अस्तित्व, पहचान और न्याय की लड़ाई भी है। बलूच मांग कर रहे हैं कि उनकी ऐतिहासिक पहचान, सांस्कृतिक विरासत और स्वायत्तता की आकांक्षाओं को मान्यता मिले। साथ ही उनको अपने भविष्य को संवारने के लिए उस प्रक्रिया में निर्णायक भागीदारी दी जाए जिसे पाकिस्तान राष्ट्र निर्माण कहता है। जब तक यह मांग पूरी नहीं होती, बलूच विद्रोह, आक्रोश और अलगाव की भावना पाकिस्तान की राष्ट्रीय एकता के सामने एक स्थायी चुनौती बनी रहेगी।

आर्थिक शोषण बनी स्थायी विरासत
बलूचिस्तान प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। प्राकृतिक गैस के साथ यहां बहुमूल्य खनिज और अरब सागर के साथ रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण तटरेखा है। फिर भी, यह व्यापक गरीबी, लंबे समय से चले आ रहे अविकास और मूल आबादी में गहरे आर्थिक वंचन की भावना से ग्रस्त है। आर्थिक शोषण ने बलूच समाज में अन्याय और असंतोष की गहरी और स्थायी भावना को जन्म दिया।

बलूचिस्तान प्राकृतिक गैस का आपूर्तिकर्ता रहा है। 1950 के दशक की शुरुआत में खोजे गए सूई गैस क्षेत्र ने कई दशकों तक देश के औद्योगिक विकास में अहम भूमिका निभाई। बलूच लोगों का यकीन है कि उनको इसका मामूली लाभ मिला है। प्रांतीय सरकार को मिलने वाली रॉयल्टी अपर्याप्त है। खासतौर से उन क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे और सामाजिक विकास परियोजनाओं में निवेश के लिहाज से, जहां से गैस निकाली जाती है।
प्राकृतिक गैस के अलावा, बलूचिस्तान में तांबा और सोना, क्रोमाइट, कोयला और अन्य आर्थिक रूप से मूल्यवान खनिज शामिल हैं। इन सीमित संसाधनों का दोहन भी एक निरंतर विवाद और असंतोष का स्रोत रहा है। स्थानीय समुदायों की शिकायत है कि खनन समझौतों में पारदर्शिता का अभाव है। साथ में पर्यावरणीय क्षरण और पारिस्थितिक नुकसान की समस्याएं गंभीर हैं। स्थानीय लोगों को इससे रोजगार भी नहीं मिल रहा है। इसके दोहन का फायदा बाहरी संस्थाओं को मिल रहा है।

बलूचिस्तान रणनीतिक रूप पर भी अहम है। ग्वादर का गहरा समुद्री बंदरगाह इसी हिस्से में है। इस बंदरगाह के विकास को अक्सर पाकिस्तान सरकार द्वारा पूरे राष्ट्र के लिए एक परिवर्तनकारी आर्थिक अवसर और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की आधारशिला के रूप में पेश किया जाता है। जबकि बड़ी संख्या में बलूच इस परियोजना को गहरी आशंका और प्रतिरोध की नजर से देखते हैं। लंबे समय से बसने वाले स्थानीय मछुआरा समुदायों के जबरन विस्थापन, बिना पर्याप्त मुआवजा या पुनर्वास विकल्पों के, बड़े पैमाने पर गैर-बलूच श्रमिकों के आगमन से मूल आबादी के और हाशिए पर चले जाने और क्षेत्र की जनसांख्यिकीय संरचना बदलने के भय और बंदरगाह से उत्पन्न होने वाले संभावित आर्थिक लाभों के न्यायसंगत वितरण की स्पष्टता की कमी जैसे गंभीर मुद्दे लगातार उठाए जाते हैं। यह आशंका है कि ग्वादर चीन और इस्लामाबाद के प्रभुत्वशाली पंजाबी अभिजात वर्ग के सामरिक और आर्थिक हितों की पूर्ति करेगा। वहीं, बलूच आबादी हाशिए पर धकेली जाएगी।

बलूचिस्तान और पाकिस्तान के अधिक विकसित प्रांतों के बीच सामाजिक-आर्थिक विकास से जुड़े सूचकांक में बड़ा फर्क है। साक्षरता दर, आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और गरीबी तथा बेरोजगारी उच्च स्तर पर है। शिक्षा और कौशल विकास जैसे क्षेत्रों में निवेश की कमी स्थानीय बलूच आबादी के अवसरों को सीमित करती है। जबकि स्वास्थ्य सेवाओं की भी दयनीय स्थिति है। इन सभी शिकायतों का मिला-जुला असर यह है कि बलूचिस्तान लंबे और हिंसक संघर्ष में उलझा हुआ है।

मानवाधिकार हनन और विश्वास का अपूरणीय क्षरण
बलूचिस्तान के विद्रोह का पाकिस्तान क्रूरता से दमन करता है। इससे असंतोष शांत होने की जगह बलूचों को अलग-थलग कर दिया है। मानवाधिकार का यहां कोई खास मोल नहीं है। हिंसा का यह दुखद और अंतहीन चक्र समय के साथ और भी गहराता गया है। सैन्य और अर्धसैनिक बलों द्वारा चलाए गए अभियानों में नागरिकों को बिना किसी वैध प्रक्रिया के हिरासत में लिया जाना, जबरन गायब कर दिया जाना, और अक्सर हिरासत में यातना ने बलूच समाज में भारी भय और अविश्वास का वातावरण उत्पन्न कर दिया है।
बलूच मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीतिक कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि जबरन गुमशुदगियों का मकसद असहमति की हर आवाज को दबाना है। न केवल राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बल्कि छात्र नेताओं, पत्रकारों, शिक्षकों और यहां तक कि साधारण नागरिकों को भी लक्षित किया गया है। इस व्यापक भय के माहौल ने बलूच समाज में राजनीतिक भागीदारी को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है, स्थानीय नेताओं की विश्वसनीयता को कम कर दिया है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर दिया है।

विकास परियोजनाएं और प्रगति के अधूरे वादे
पाकिस्तानी ने बलूचिस्तान में ग्वादर पोर्ट और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा को राष्ट्रीय आर्थिक मुख्यधारा में एकीकृत करने के साधन के रूप में पेश किया है। लेकिन बलूच इस परियोजना को दोधारी तलवार मान रहे हैं। आर्थिक उत्थान की क्षमता होने के बाद भी इनको जिस तरीके से लागू किया गया है, उसने स्थानीय आबादी को हाशिए पर धकेला है। पारदर्शिता की कमी, समुदायों के विस्थापन और बाहरी लाभार्थियों की धारणा ने संभावित प्रगति को खत्म कर दिया है। होरमुज जलडमरूमध्य के मुहाने पर स्थित ग्वादर बंदरगाह से स्थानीय मछुआरा समुदायों को उचित मुआवजा या पुनर्वास के बिना विस्थापन किया गया।

बलूचिस्तान विद्रोह पर हालिया समाचारों में प्रमुख विस्तार और नई प्रवृत्तियां

  • बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA) ने थोड़े समय में 70 से अधिक हमलों का दावा किया। यह सशस्त्र संघर्ष की गंभीर और चिंताजनक वृद्धि को दर्शाता है। इससे साबित होता है कि अब पाकिस्तान की प्रांतीय सत्ता को बलूच चुनौती देने की स्थिति में हैं।
  • प्रमुख बलूच नेता मीर यार बलूच ने भारत से मान्यता और समर्थन की खुली अपील की है। रणनीतिक दृष्टिकोण में यह अहम बदलाव है। यह इस बात को रेखांकित करता है कि पाकिस्तान के भीतर समाधान खोजने की उम्मीदें धूमिल होती जा रही हैं।
  • “Republic of Balochistan announced” का सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना और बलूच नेताओं की घोषणाएं पाकिस्तान की संप्रभुता को खुली चुनौती हैं।
  • BLA ने भारत से जो अपील की है, उसमें उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने की अपील की है। साथ ही खुद को भारत की पश्चिमी भुजा बनने की पेशकश भी की है।
  • बलूचिस्तान से संबंधित हैशटैग्स का ट्रेंड करना और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसकी खबरें यह संकेत देती हैं कि इस मुद्दे पर वैश्विक ध्यान बढ़ रहा है। यह आने वाले समय में कूटनीतिक और मानवीय चर्चाओं का विषय बन सकता है।

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Ashutosh Mishra

mishutosh@yahoo.co.in

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