कुछ वर्षों पहले तक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री अपने ग्लैमर, स्केल और बजट के दम पर साउथ की फिल्मों को “रीजनल” कहकर टाल दिया करती थी। आज वही ‘रीजनल’ सिनेमा बॉलीवुड की रीढ़ में सवाल खड़े कर रहा है—सवाल न केवल क्वालिटी के, बल्कि सोच, आत्मा और कहानी के भी।
‘पुष्पा’ और ‘कांतारा’ ने केवल स्क्रीन नहीं, सोच बदली
‘पुष्पा’ का एटीट्यूड, ‘RRR’ का विस्फोटक नैरेटिव, ‘कांतारा’ की जड़ से जुड़ी आत्मा—इन फिल्मों ने हिंदी पट्टी में न सिर्फ कमाई की, बल्कि दर्शकों की नज़र में सिनेमा की परिभाषा बदल दी।
बॉलीवुड जहां वीएफएक्स और ब्रांडेड चेहरों में खोया रहा, वहीं साउथ ने संस्कृति, संवेदना और टेक्निकल ग्राउंडिंग से सिनेमा को जिंदा रखा।
बॉलीवुड का संकट सिर्फ कंटेंट का नहीं, दृष्टि का है
बॉलीवुड की कई फिल्में आज भी 2010 के फॉर्मूले पर टिकी हैं—जहां कहानी एक बहाना है और प्रमोशन ही रणनीति। इसके विपरीत, साउथ की फिल्मों में निर्देशक, स्क्रिप्ट और सिनेमैटोग्राफी, तीनों बराबर महत्व रखते हैं।
यहां निर्देशक एक नेता है, न कि प्रोजेक्ट मैनेजर। यही फर्क है।
रीमेक संस्कृति: आत्मविश्वास की कमी या आसान रास्ता?
बॉलीवुड आज साउथ की फिल्मों के रीमेक से भरा पड़ा है—जर्सी, शाहिद कपूर की कबीर सिंह, विक्रम वेधा, भूल भुलैया 2… यह सूची लंबी है। लेकिन सवाल है: जब मूल फिल्में उपलब्ध हैं, तो दर्शक हिंदी संस्करण क्यों देखे?
रीमेक सिर्फ भाषा नहीं बदलता, अक्सर आत्मा खो देता है।
यह युद्ध नहीं, चेतावनी है
यह उत्तर-दक्षिण की लड़ाई नहीं है। यह दर्शक की ओर से भेजा गया सिग्नल है—कि वो अब असल, ईमानदार और सांस्कृतिक रूप से ज़मीन से जुड़ी कहानी चाहता है।
साउथ ने सिनेमा को फिर से कला बनाया है। बॉलीवुड को उसे फिर से ज़िम्मेदारी बनाना होगा।