एक समय था जब ‘100 करोड़ क्लब’ में शामिल होना किसी भी फिल्म के लिए तमगे से कम नहीं था। आज यही तमगा बोझ बनता जा रहा है। करोड़ों झोंक कर बनाए गए ‘बड़े मियां छोटे मियां’, ‘गणपत’ और ‘आदिपुरुष’ जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरती हैं और एक मौन सवाल छोड़ जाती हैं—क्या अब दर्शक बदल गया है, या बॉलीवुड थम गया है?
जब स्टारडम पर नहीं टिकी कहानी
बॉलीवुड लंबे समय तक एक सरल फॉर्मूले पर टिका रहा—बड़ा चेहरा, बड़ा पोस्टर, बड़ा कलेक्शन। लेकिन अब दर्शक सिर्फ चेहरे नहीं, किरदार ढूंढता है। उसे एक्शन नहीं, अर्थ चाहिए। अब पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकारों की सादगी और विकरण मस्से की खामोशियाँ ज़्यादा प्रभाव छोड़ती हैं।
सिनेमा की भाषा बदली है, पर स्क्रिप्ट वही है
हीरो की धमाकेदार एंट्री, चार्टबस्टर आइटम सॉन्ग, घिसे-पिटे संवाद और एक नकली क्लाइमेक्स—बॉलीवुड की बड़ी फिल्मों का खाका अभी भी 2010 में अटका हुआ है। मगर दर्शक अब ‘12वीं फेल’, ‘मिमी’ और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्मों के ज़रिए सिनेमा को जीना सीख चुका है।
क्या सिर्फ पैसा अब फिल्म बनाता है?
200 करोड़ की फिल्म का मतलब अब सिर्फ रिस्क है, रिज़ल्ट नहीं। एक ओर भारी-भरकम लागत वाली फिल्में दम तोड़ रही हैं, वहीं छोटे बजट की कहानियाँ—जैसे ‘गुलमोहर’ या ‘पगलैट’—धीरे-धीरे दर्शकों की स्मृति में दर्ज हो रही हैं। दरअसल, फिल्म अब उसकी होती है जो दिल में रह जाए—not just weekend numbers.
समय है आइने में देखने का
बॉलीवुड को खुद से पूछने की ज़रूरत है—क्या वह सिर्फ भीड़ खींचने की कला बनकर रह गया है? या फिर वह फिर से कहानी कहने की जिम्मेदारी उठाना चाहता है?
सिनेमा केवल दृश्य नहीं, विचार होता है। और आज के दर्शक को दृश्य से ज़्यादा विचार की प्यास है।
इसे एक चेतावनी समझिए, चुनौती नहीं।
बॉलीवुड को कंटेंट के भरोसे फिर से अपने लिए जगह बनानी होगी—क्योंकि अब चेहरे नहीं, कथ्य बिकता है।