जो लोग 45-50 साल के होंगे, उनको ठीक-ठीक याद होगा कि बचपने में थाली में अन्न छोड़ देना गुनाह हुआ करता था। ‘अन्न देव’ नाराज हो जाते थे। और नासमझी में या गलती से छूट भी गया तो उसको भी फेंकते नहीं थे। वहां, जहां बर्तन धुला जाता, बड़ी सी बाल्टी रखी होती। बची-खुची जूठन तो डाली ही जाती थी इसमें। सब्जी का छिलका, आटे से निकला ‘चोकर’ ‘खली’ आदि में इसी में जमा की जाती। इससे रसोई को कुछ भी बेकार नहीं जाता था।
मतलब, उसे, जिसे गीला-सूखा कचरा कहते हैं, उसका अनायास ही घर में segregation हो जाता था। अनायास इसलिए कि यह हमारे स्वभाव में था, कोई प्रयास नहीं करना पड़ता था। और यह जो रसोई से निकलता, वह एक तरह से जानवरों के ‘खाने की चटनी’ होती। हरे-सूखे चारे में जो दिन में दो-तीन बार मिलाई जाती थी।
और घर से निकलने वाला सूखा कूड़ा हर घर से थोड़ी दूर फिंकता। इसे घूर कहते। इसी में जानवरों का गोबर समेत दूसरी गंदगी भी रखी जाती थी। इसकी साल में दो बार, रबी व खरीफ से पहले सफाई होती थी, जिसे खेत में डाला जाता। एक तरह से आर्गेनिक खाद की तरह। तभी इससे फसल की पैदावार बढ़ती।
यह हम सबकी जीवन शैली में था। चेतन में यह सब इतने गहरे तक समाया था कि सायास कुछ भी नहीं करना होता था। सामान्य तरीके से सब होता जाता था।
अन्न फेंककर पहले पहल हमने इस सिस्टम को तोड़ा। धीरे-धीरे हम वह सब कुछ फेंकने लगे, जिसका इस्तेमाल किया जा सकता था, जिसे हम linear economy कहते हैं, वह हमारी इसी प्रवृत्ति से आई। इसमें हमने उत्पाद विशेष को बनाकर बची उन सारी चीजों को फेंक दिया, जिनमें से कुछ और बना लेने की संभावना थी।
और इसका विकल्प आज जिस circular economy को बताया जा रहा है, यह वही है, जो कभी हमारी जीवन शैली में रची-बसी थी। इसमें घर का तिनका भी बेकार भी नहीं जाता था। अन्न से गोबर तक की हर चीज का इस्तेमाल तो एक उदाहरण भर है, बहुत सी ऐसी और चीजें थीं, जिसे हम सबने अपने जीवन में धारण कर रखा था, लेकिन खुद में सिमटने, व्यक्ति केंद्रित होते जाने के क्रम में जिसे आज छोड़ दिया गया है। और जैसे-जैसे linear economy खतरा बन रही है, हम फिर से वापस लौटने को तैयार हैं। मतलब, बुद्धू लौट कर घर की तरफ ही आ रहे हैं। आना ही पड़ेगा।