सम्पादकीय

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बीमार नहीं, Healthy Ecosystem ही दे सकेगा सकेगा हम सबको अपनी सेवा

Ecosystem भी हमारे-आपके शरीर की तरह काम करता है। वह स्वस्थ होगा, तभी उसकी सेवाएं मिल सकेंगी। वैसे ही, जैसे ठीक रहने पर ही हम काम कर पाते हैं।
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Circular Economy और हम लोग

आज जिस गीले-सूखे कचरे के segregation पर सरकार का पूरा जोर है, लेकिन अभी यह संभव नहीं हो सका है, वह कभी हम सबकी जीवन शैली का हिस्सा था। प्रक्रिया इसकी रसोई से ही शुरू होती थी।
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रवायतें अनुभव से बनी हैं…

इंसानी सभ्यता की पहली सबसे बड़ी खोज आग रही होगी। दूसरा बड़ा आविष्कार पहिया बना होगा। और यह जो खोजें थीं, वह अनुभवजनित थीं। इंसान से पत्थरों को टकराकर आग पैदा होते देखा, उसमें जल गई फसलों को खाया होगा। अच्छा लगा उसे और आग को चमत्कार मान मान लिया। पहिए की कहानी भी कुछ यूं ही रही होगी।
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लोभ बनाम संतोष… सुख की तलाश में हम लोग

अमूमन हम लोग न तो परम लोभी हैं, न परम संतोषी। दोनों गुण हममें मौजूद हैं। लेकिन हम लोभी कहलाएंगे या संतोषी, यह इससे तय होगा कि कौन सा गुण हममें प्रभावी हैं।
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विकास के केंद्र में इंसान, लेकिन वह इंसान है कौन

यह सामान्य समझ है कि 'विकास' कैसा भी हो, समृद्धि, सुकून व खुशहाली का लाना इसकी न्यूनतम व अनिवार्य शर्त है। और यह जो एक बार आ जाएं, इनमें स्थायित्व भी रहे। ऐसा न हो कि आज खुशहाली आई, कल गायब हो गई। किसी भी वैकासिक गतिविधि में ऐसा नहीं होता।
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कभी बारिश, कभी दमघोटू हवा, गंदा पानी… दिल्ली बेहाल है

दिल्ली बेहाल है। रविवार तेज बारिश से। और पहले कभी दमघोंटू हवा, गंदे पानी से। ऐसा साल भर लगा रहता है। ऊंची इमारतें, चौड़ी सड़कें तो बनी, लेकिन दिल्ली को मिली, भीड़ और धूल की सौगात। ध्वनि, वायु व जल प्रदूषण से लोग त्रस्त हैं। और क्या दिल्ली? पूरी दुनिया का हाल भी कमोबेश यही है। समाधान नहीं मिल रहा है। चिंता सबमें है, लेकिन यह समझने को कोई तैयार नहीं कि समस्या खुद हमीं ने खड़ी की है।
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एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति

भारत में सवाल 'आत्म-ब्रह्म' का, 'मैंं कौन हूं?' का भी आम है। और 'सब-कुछ यहीं है', 'जो दिखता है, वही सत्य है', '...ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' की जड़ें भी गहरी है। आस्तिक भी हैं, नास्तिक भी। वैष्णव हैं, कापालिक, अघोरी भी। कोई बनी-बनाई लीक नहीं, जिस पर सब एक साथ चले जा रहे हैं।
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