नई दिल्ली: बिहार के बीते विधानसभा चुनाव के बाद ‘हनुमान’ (चिराग पासवान) पर ‘राम’ (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) की कृपा नहीं बरसी। उस चुनाव में ‘हनुमान’ की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को सबक सिखाने की इच्छा बहुत हद तक पूरी हुई, मगर बड़ी कीमत चुकाने के बाद। बदली परिस्थितियों में भाजपा को तीसरी सबसे बड़ी पार्टी जदयू के मुखिया नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करना पड़ा और चिराग ने इसकी कीमत घर, बंगला और पार्टी गंवाने की कीमत पर चुकाई।
अब आगामी विधानसभा चुनाव से पूर्व बिहार की सियासत में ‘हनुमान’ फिर से चर्चा में हैं। बीते चुनाव में नीतीश उनके सीधे निशाने पर थे। इस चुनाव में चिराग परोक्ष रूप से नीतीश और उनकी सरकार पर निशाना साध रहे हैं। उन्होंने खुद चुनावी मैदान में उतरने के साथ राज्य सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर बिहार की सियासत में हलचल पैदा कर दी है। राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था पर विपक्ष के सुर में सुर मिला कर लगातार सवाल दाग रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह ‘हनुमान’ इस बार नई रणनीति के साथ चुनाव मैदान में उतरेगा?
अपनी कीमत पर जदयू को नुकसान
बीते चुनाव की बात करें तो चिराग ने चुनाव में अपनी कीमत पर जदयू को नुकसान पहुंचाया। पार्टी चुन-चुन कर उन सीटों पर लड़ी, जो सीटें जदयू के हिस्से की थी। इसका परिणाम यह हुआ कि जदयू 35 सीटों के नुकसान के साथ राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी हो गई। हालांकि, इसके तत्काल बाद चिराग न सिर्फ राजग में किनारे कर दिए गए, बल्कि लोजपा पर उनके चाचा पशुपति पारस ने कब्जा किया। चिराग की जगह उनके चाचा पशुपति पारस केंद्र में मंत्री बने। इतना ही नहीं, चिराग को अपनी ही पार्टी से हाथ धोने के साथ जनपथ रोड स्थित दशकों पुराना सरकारी घर भी गंवाना पड़ा। चुनाव में लोजपा करीब छह फीसदी वोटों के साथ एक सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई और पार्टी का इकलौता विधायक भी जदयू में शामिल हो गया।
इस बार क्यों विद्रोही तेवर में हैं चिराग?
दरअसल, सारी लड़ाई राजग में सीट बंटवारे को ले कर है। जदयू-भाजपा ने तय किया है कि राज्य की 243 सीटों में से 200 सीटें उनके और शेष 43 सीटें सहयोगियों के हिस्से जाएगी। इस फार्मूले के हिसाब से चिराग की पार्टी को 25 से 30 सीटों पर संतोष करना पड़ेगा। चिराग की मुश्किल यह है कि उनके चाचा पशुपति अब विपक्षी महागठबंधन के साथ हैं। ऐसे में अगर उनके प्रतिद्वंद्वी पशुपति आधा दर्जन सीट जीते और राज्य में सत्ता परिवर्तन हो जाए तो लोजपा में विरासत का सवाल मजबूती के साथ खड़ा होगा। फिर इस जंग में चिराग अपने चाचा के सामने कमजोर पड़ जाएंगे।
क्या है सीट फार्मूले का विवाद?
भाजपा और जदयू चाहते हैं कि सीटों का बंटवारा लोकसभा चुनाव के फार्मूले पर हो। मसलन, तब जदयू 16, भाजपा 17, लोजपा 5, हम और आरएलएम एक-एक सीट पर चुनाव लड़े थे। इस फार्मूले के हिसाब से लोकसभा की एक सीट पर विधानसभा की छह सीट के हिसाब से जदयू-भाजपा के जिम्मे 200 सीटें आएंगी। जबकि लोजपा को अधिकतम 30 सीटों पर संतोष करना पड़ेगा। चिराग चाहते हैं कि बंटवारे का पैमाना जीत हो। मतलब, बीते चुनाव में राजग को 30 सीटों पर जीत मिली थी। इसमें भाजपा-जदयू को 12-12, लोजपा को 5, हम को एक सीट मिली थी। इस फार्मूले के हिसाब से लोजपा को कम से कम 40 सीटें मिलेगी।
ज्यादा नहीं झुकेंगे चिराग
लोजपा आर के सूत्रों के मुताबिक, चूंकि यह चुनाव चिराग के लिए जीवन या मरण का सवाल है, ऐसे में चिराग ज्यादा नहीं झुकेेंगे। उन्हें अतीत का कड़वा अनुभव भी है। उन्होंने देखा है कि कैसे परिस्थिति बदलते ही भाजपा नेतृत्व ने उनकी जगह उनके चाचा पशुपति को तरजीह दी। फिर, चिराग अपने पिता रामविलास पासवान की तरह केंद्रीय राजनीति की जगह राज्य की राजनीति में अपना भविष्य देखते हैं। ऐेसे में अगर सम्मानजनक सीटें नहीं मिली तो चिराग एक बार फिर से अपने दम पर चुनावी मैदान में उतर सकते हैं।
पिता से इतर है चिराग की सोच
यह सच है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले चिराग ने ही अपने पिता दिवंगत रामविलास पासवान को राजग में शामिल होने के लिए मनाया था। दिवंगत पासवान की राज्य की राजनीति की अगुवाई करने की इच्छा थी, मगर परिस्थितिवश उन्हें इसका अवसर नहीं मिला। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में जब 29 सीटें जीत कर लोजपा किंगमेकर की भूमिका में थी, दिवंगत पासवान के पास मुख्यमंत्री बननेे का ऑफर था। हालांकि, तब उन्होंने केंद्र की राजनीति का ही चुनाव किया। इसके उलट चिराग की निगाहें राज्य की राजनीति पर है। यही कारण है कि कभी वह बिहार फर्स्ट और बिहारी फर्स्ट का नारा देते हैं तो कभी कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर अपनी ही सरकार पर निशाना साधने से नहीं चूकते।