नई दिल्ली: इस्राइल और ईरान के बीच छिड़ा तनाव अब छठे दिन में प्रवेश कर चुका है। इस्राइल ने ईरान के परमाणु ठिकानों, सैन्य अधिकारियों और वैज्ञानिकों को निशाना बनाया है, जबकि ईरान ने तेल अवीव और यरुशलम जैसे इस्राइली शहरों पर बैलिस्टिक मिसाइलों से जवाबी हमले किए हैं। इस संकट के बीच अमेरिका के भी इसमें कूदने की आशंका बढ़ रही है, जिससे यह टकराव पूर्ण युद्ध में बदल सकता है। फिलहाल दोनों देशों के बीच शांति की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही।
इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इस संघर्ष को ईरान की परमाणु क्षमता को खत्म करने और उसके सुप्रीम लीडर को निशाना बनाने के अवसर के रूप में देख रहे हैं। दूसरी ओर, ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामनेई ने साफ कर दिया है कि उनका देश किसी भी कीमत पर पीछे नहीं हटेगा और जवाबी कार्रवाई जारी रखेगा। ऐसे में सवाल उठता है कि पश्चिम एशिया को युद्ध की आग में झोंकने वाले इन दो नेताओं की कहानी क्या है? नेतन्याहू और खामनेई का शुरुआती जीवन, उनकी राजनीतिक विचारधारा और इस संघर्ष के उनके लिए मायने क्या हैं? आइए, जानते हैं।
बेंजामिन नेतन्याहू: आखिरी जंग या राजनीतिक करियर का अंत?
बेंजामिन नेतन्याहू इस्राइल के सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले प्रधानमंत्री हैं। लेकिन उनका सफर आसान नहीं रहा। सेना से लेकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने में उन्हें कई उतार-चढ़ाव देखने पड़े। 17 साल से ज्यादा समय सत्ता में बिताने वाले नेतन्याहू को 8 साल विपक्ष में भी रहना पड़ा।
राजनीति में तेजी से उभरे, लेकिन चुनौतियां बरकरार
नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र में इस्राइल के राजदूत के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। वहां से लौटकर उन्होंने घरेलू राजनीति में कदम रखा और जल्द ही संसद में पहुंच गए। 1993 में वे दक्षिणपंथी लिकुड पार्टी के नेता बने। 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने, जब उन्होंने महज 1% वोटों के अंतर से चुनाव जीता। यही वह दौर था जब नेतन्याहू ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को इस्राइल के लिए खतरा बताना शुरू किया। 1996 से अब तक वे पांच बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं, आखिरी बार 2022 में सत्ता संभाली। इस दौरान इस्राइल ने गाजा, लेबनान, यमन और ईरान पर आक्रामक सैन्य कार्रवाइयां कीं।
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क्या ईरान से जंग होगी नेतन्याहू के करियर का अंत?
सैन फ्रांसिस्को स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एरन काप्लान का मानना है कि ईरान के खिलाफ नेतन्याहू का यह अभियान उनके राजनीतिक जीवन का आखिरी पड़ाव हो सकता है। उनका गठबंधन कमजोर पड़ रहा है, और सर्वे बता रहे हैं कि अगला चुनाव जीतना उनके लिए मुश्किल होगा। शायद यही वजह है कि नेतन्याहू ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खत्म करने के इस मौके को आखिरी अवसर मानकर हर जोखिम उठा रहे हैं।
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अयातुल्ला अली खामनेई: क्रांति के अंतिम योद्धा
जब 1988-89 में नेतन्याहू संयुक्त राष्ट्र में इस्राइल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उसी समय अयातुल्ला अली खामनेई ईरान के सुप्रीम लीडर बनने की तैयारी कर रहे थे। 1981 से 1989 तक ईरान के राष्ट्रपति रह चुके खामनेई 1989 से सुप्रीम लीडर हैं। इस पद पर रहते हुए वे न केवल धार्मिक, बल्कि देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक नेता भी हैं।
खामनेई का राजनीतिक उदय: खून और क्रांति की राह से
1981 में तेहरान की एक मस्जिद में हुए बम विस्फोट में खामनेई गंभीर रूप से घायल हुए, जिससे उनके दाएं हाथ में लकवा मार गया। उसी साल ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति की हत्या के बाद अयातुल्ला रुहोल्ला खोमैनी ने खामनेई को राष्ट्रपति बनाया। 1989 में खोमैनी की मृत्यु से पहले उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया गया। खोमैनी के निधन के 24 घंटे के भीतर खामनेई सुप्रीम लीडर बन गए, हालांकि कुछ धार्मिक नेताओं ने इसका विरोध भी किया।
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पश्चिम से टकराव और क्रांति की विरासत
खामनेई के नेतृत्व में ईरान और पश्चिमी देशों के रिश्ते हमेशा तनावपूर्ण रहे। 2015 में परमाणु समझौता (JCPOA) एक उम्मीद की किरण बना, लेकिन 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे रद्द कर दिया। खामनेई ने इसे अमेरिका की धोखेबाजी करार दिया और कहा कि वे शुरू से ही पश्चिम पर भरोसा न करने की बात कहते रहे हैं। लेखक करीम सज्जादपुर के अनुसार, खामनेई ईरान की 1979 की क्रांति के अंतिम जीवित नेता हैं। वे मानते हैं कि पश्चिमी दबाव के सामने झुकना कमजोरी है, जो और दबाव को न्योता देता है।
इस्राइल के खिलाफ मुखर रुख
खामनेई ने इस्राइल की नीतियों की हमेशा आलोचना की है। गाजा, लेबनान, यमन और ईरान पर इस्राइली हमलों को वे गलत ठहराते हैं और कहते हैं कि इसका बदला लिया जाएगा। ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले को उन्होंने “बड़ी भूल” करार दिया।
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इस संघर्ष के मायने
नेतन्याहू के लिए यह जंग उनके राजनीतिक करियर को बचाने और इस्राइल की सुरक्षा को मजबूत करने का आखिरी मौका हो सकता है। वहीं, खामनेई के लिए यह ईरान की संप्रभुता और क्रांति की विरासत को कायम रखने की लड़ाई है। दोनों नेताओं की विचारधाराएं और उनके देशों के हित एक-दूसरे से टकरा रहे हैं, जिससे पश्चिम एशिया का भविष्य अनिश्चितता के भंवर में फंस गया है।