अमूमन हर इंसान लालच-संतोष के द्वैत में रहता है। न परम लालची, न परम संतोषी। अकेले में इनका कोई वजूद नहीं। दोनों वृत्तियां साथ रहती हैं। फर्क सिर्फ मात्रा का है। यह हमारे अपने ऊपर है कि सीखते-समझने के क्रम में हम मात्रा किसकी बढ़ाते हैं। लोभ बढ़ेगा तो लोभी होंगे, संतोष तो संतोषी।
पहले हमने जो समझा-सीखा कि जो कुछ भी अतिरिक्त है, दूसरे को देने में कोई बुराई नहीं थी। भला होता है इससे, तो हम देने को प्रस्तुत थे। और लेना पड़ा तो उतना भर लिया, जितना जरूरी था। लेन-देन की यही समझ रही हमारी। चाहे यह व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की हो या व्यक्ति-प्रकृति के बीच की। इसमें जो भी उपभोग किया, त्याग भाव में किया। प्रवृत्ति हमारी संतोषी बनी रही। तभी हम ‘तेनत्यक्तेनभुञ्जीथाः’ का आह्वान कर भी सके।
मानव इतिहास में यह हाल की घटना है, जब हम दूसरे छोर पर जा टिके हैं। लालच का तत्व प्रबल हो चला है, हममें। शायद यह पहली बार तब हुआ होगा, जब resources का maximum utilisation करते-करते हममें उस अतिरिक्त का आकर्षण बना, पहले जिसे दे देने को तैयार रहते थे। इसमें किसी और को क्या देना, सब-कुछ अपना और अपने लिए तक में सिमट गया। लोभ के मूल में इस सोच ने खूब काम किया।
और जब एक बार लालच बढ़ी तो यह बढ़ती ही चली गई। शिखर से लुढ़कते उस पत्थर की तरह, जिसकी गति सतह पर आने के क्रम में बढ़ती जाती है। हम घने लालची होते गए। और हमसे बना समाज भी। सबको जल्दी है। इस जल्दबाजी में सब जायज है। उपभोग भी, दोहन भी। यही किया है हमने। कर भी यही रहे हैं।
लेकिन इस सबका जो नतीजा रहा, वह त्रासद रहा। उपभोक्तावादी संस्कृति विनाश की वजह बनी है। हमें फिर से वहीं लौटना है, जहां से गड़बड़ शुरू हुई है। शरीर के हर अंग को सेहतमंद रखना है, ecosystem के हर तंतु को function करते देना है। नाम बेशक उसके कुछ हों, हम इसे circular economy कहें, green, nature centric या eco-centric development, इस पर बात करनी पड़ेगी, अगर बचे रखना है तो। सरकार से ज्यादा हमें, आपको और हम सबसे बने समाज को।