विकास के केंद्र में इंसान, लेकिन वह इंसान है कौन

यह सामान्य समझ है कि 'विकास' कैसा भी हो, समृद्धि, सुकून व खुशहाली का लाना इसकी न्यूनतम व अनिवार्य शर्त है। और यह जो एक बार आ जाएं, इनमें स्थायित्व भी रहे। ऐसा न हो कि आज खुशहाली आई, कल गायब हो गई। किसी भी वैकासिक गतिविधि में ऐसा नहीं होता।

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. इस बीच जो कुछ हुआ है, उसमें वह निजी स्तर पर समृद्ध हुए हैं क्या?

. जो हुए हैं, उनमें समृद्धि भौतिक है, मानसिक या दोनों?

. सुकून और खुशहाली आई या तनाव व वैमनस्य बढ़ा है?

. गरीब अमीर हुआ या और गरीब?

. सामाजिक सौमनस्य बढ़ा या वैमनस्य?

. पर्यावरण सुधरा या क्षरण हुआ इसका?

. बार-बार प्रकृति जो इशारा कर रही है, अभिव्यक्ति है जो उसकी, विध्वंस की, वह क्या?

विकास का अभी का जो मॉडल है, जिसके केंद्र में इंसान ने खुद को रखा हुआ है, उसमें इनका जवाब नकारात्मक ही मिलेगा। व्यक्ति को केंद्र में रखकर होने वाले विकास की सीमा भी यही है। हर ओर जो दिख रहा है, भूस्खलन, बाढ़, सूखा जनित जान-माल को भारी नुकसान पहुंचाने वाली त्रासदियां थम नहीं रही हैं, उन सबका संदेश यही है कि आगे विनाश की गति और भी तेज होने वाली है।

अगर इन्हें रोकना है तो काम पैबंद से नहीं चलेगा। बात अवधारणा के स्तर पर करनी पड़ेगी। मौजूदा मॉडल की जगह कुछ और सोचना पड़ेगा। और वह जो सोच होगी, वह भारतीय समझ से बनेगी। वह इसलिए भी कि प्रकृति हमारे लिए दयालु रही है। तभी मौजूदा दौर में विकास की बात ग्रीन कॉन्सेप्ट पर होनी चाहिए।

आखिर ‘व्यक्ति’ है कौन

विकास का आज का यह जो मॉडल है, जिसमें सब-कुछ ‘व्यक्ति का’, ‘व्यक्ति के लिए’, ‘व्यक्ति के द्वारा’ है, इसमें आखिर ‘व्यक्ति’ है कौन? राष्ट्रों में बंटी दुनिया का अमेरिकी, चीनी, भारतीय, केन्याई या राज्यों में बंटे भारत का गुजराती, तमिल, तेलुगू, मलयाली?

अपने यहां विकास के केंद्र में जो ‘व्यक्ति’ है, वह अमीर है, गरीब है, किसान-मजदूर है, उद्योगपति हैं, हिंदू है, मुस्लिम है या सब हैं? अगर कोई एक है तो बाकी का क्या? और अगर सब हैं, तो कैसे, जब सेवाओं तक सबकी पहुंच ही नहीं है? साइकिल से प्लेन तक में सब कहां हैं? बराबरी निजी-सरकारी शिक्षा संस्थान, अस्पताल में भी तो नहीं?

तो वह कौन सा व्यक्ति है, जो विकास के केंद्र में है? जवाब अगर ईमानदारी से ढूंढा गया तो विकास के केंद्र में ‘व्यक्ति’ कहने भर के लिए मिलेगा। चल उसी की रही है, फायदे में वही है, जिसके हाथ में लाठी है। और लाठी पर पकड़ मजबूत रहे, चिंता भी उनकी इतने भर की ही है। इसमें कौन बचा, कौन गया, इसकी फिक्र कहां उसको? तभी प्रकृति को केंद्र में रखकर बात करना जरूरी है। इसमें प्रकृति सबकी है, सबके लिए है।

Suman

santshukla1976@gmail.com http://www.newgindia.com

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