नई दिल्ली: दौर बड़ा संजीदा है, संवेदी भी। इसमें बच्चों की ही नहीं, मां-बाप की भी स्कूलिंग जरूरी है। वह इसलिए भी कि हमारी उम्र के लोगों को जो जानकारियां ग्रेजुएशन या उसके बाद मिल सकीं, आठ-नौ साल के बच्चे आज उनसे परिचित हैं। सूचनाओं की बौछार है उन पर, जिसका मौका हमने ही मोबाइल थमाकर दिया है। और वह अपनी समझ से खुद तक पहुंच रही सूचनाओं के मायने-मतलब निकाल रहे हैं।
मशहूर मनोविज्ञानी जोनाथन हैद अपनी नवीनतम किताब ‘द अनेक्सस जेनरेशन’ में इस समस्या की तह तक गए हैं। अमेरिकी समाज पर केंद्रित पुस्तक दुनिया भर के बच्चों पर छाए संकट पर रोशनी डालती है। सबूत है कि मानसिक संघर्ष घना है। देश-काल से परे स्मार्टफोन के साथ बड़े हो रहे बच्चे मानसिक अवसाद से जूझ रहे हैं।
इसमें सख्ती से काम नहीं बनेगा। तब वह स्पेस नहीं बचेगा कि बच्चा मां-बाप से कुछ पूछ सके, अपनी आशंका मिटा सके। और बात बहुत उदार होने पर भी नहीं बनेगी। तब बच्चा अड़ियल, गुस्सैल, अपनी पसंद की हर चीज को हासिल करने का आदी होगा।
अभी कहीं पढ़ रहा था, जो ठीक भी लगा कि सख्ती-उदारता की जगह पेरेंटिंग सहानुभूति-सीमाओं के बीच की बात है कि;
‘हां बेटा, मुझे पता है तुम बोरियत महसूस कर रहे होगे.’ यह कहना सहानुभूतिपूर्ण है।
साथ में यह भी कि;
‘लेकिन बोरियत मिटाने के लिए घंटों अपने फोन पर मत रहो, कोई खेल खेलो या किताब पढ़ो।’ यह है सीमा।
इनमें जितना बेहतर संतुलन होगा, बच्चा भी उतनी ही समझ से ग्रो करेगा।
फिर भी, इसमें कोई बना-बनाया फार्मूला, यूजर-मैनुअल, स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग सिस्टम या प्रैक्टिस-गाइड काम नहीं आएगा। हर मां-बाप को अपने से अपना समाधान देना पड़ेगा।