अप्रैल ने तपाया, मई-जून में झुलसाएगी गर्मी, ऐसा कैसे हुआ

--- जेठ आने से पहले सूर्य की तपिश चरम पर, आने वाले समय में पारा और भी तेजी से भागेगा ऊपर -- वायु मंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के तेजी से बढ़ने का भी मिल रहा प्रमाण, इसका बढ़ना जलवायु परिवर्तन की बन रहा बड़ी वजह

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— जेठ आने से पहले सूर्य की तपिश चरम पर, आने वाले समय में पारा और भी तेजी से भागेगा ऊपर
— वायु मंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के तेजी से बढ़ने का भी मिल रहा प्रमाण, इसका बढ़ना जलवायु परिवर्तन की बन रहा बड़ी वजह

नई दिल्ली।
नौतपा बेशक मई के आखिर में है, गर्मी फरवरी से ही पीसने छुड़ा रही है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) इसकी तस्दीक भी करता है। फरवरी की 27 तारीख मौसम विभाग के दर्ज इतिहास में सबसे गर्म रही। 1951 से लेकर 2025 तक कोई भी दिन ऐसा नहीं था, जब दिल्ली का न्यूनतम तापमान 19.5 डिग्री सेल्सियस पहुंचा हो। आईएमडी के पास 1951 से पहले का डेटा ही मौजूद नहीं है। जबकि 25 फरवरी इससे पहले 25 फरवरी 2015 को तापमान 19 डिग्री सेल्सियस रहा। मार्च और अप्रैल महीना भी तपिश भरा गुजरा। वैसे, आईएमडी ने पहले से चेता रखा है कि इस बार जून तक जमकर गर्मी पड़ेगी।
गर्मी के विज्ञान की तरफ बढ़ें, थोड़ी चर्चा नौतपा और मौसम पर भारतीय समझ की…, अपने यहां मई-जून में पड़ने वाले हिंदी के जेठ महीना सबसे गर्म माना गया है। इसके भी नौ दिनों की तपिश सबसे तेज होती है। ज्योतिष गणना में इसको नौतपा कहा जाता है। इस साल यह 25 मई से शुरू हो रहा है। ग्रामीण भारत के सदियों पुराने मौसम विज्ञानी घाघ इस महीने में यात्रा की मनाही करते हैं। वह यूं कि गर्मी की यात्रा सेहत के लिए नुकसानदेह होती है।
अब चर्चा मौसम के विज्ञान की। इसमें विज्ञान ज्यादा होने से कला संकाय वाले थोड़ा ठहरकर पढ़ें, यह हमारी रिसर्च टीम की सलाह भर है। बात बीते साल की है। 2024 के जून महीने में संयुक्त राज्य अमेरिका के हवाई द्वीप समूह से दुनिया के लिए खतरे का एक संदेशा आया। और वह था, धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस, Co2 के रिकॉर्ड इजाफे का। यह गैस बहुत तेजी से बढ़ रही है।
सैन डिएगो के स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी के शोधकर्ताओं ने बताया कि बीते एक साल में इस गैस की मात्रा में अब तक की सबसे बड़ी बढ़त दर्ज की गई है। 2023 मार्च की तुलना में 2024 मार्च में Co2 की वैश्विक औसत सांद्रता 4.7 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) अधिक रही। मानव इतिहास में एक साल में रिकॉर्ड तोड़ वृद्धि है।
गैस की रीडिंग संयुक्त राज्य अमेरिका के हवाई द्वीप समूह पर स्थित मौना लोआ ज्वालामुखी के मॉनिटरिंग स्टेशन से ली गई है। इस पर आगे बढ़ें, इससे पहले बात पीपीएम पर। यह संख्या बताती है कि हवा के दस लाख भागों में Co2 के कितने अणु हैं और बाकी दूसरी गैसों, धूल व जल वाष्प आदि के अणु कितने। मसलन, अगर वायुमंडल में Co2 का स्तर 1,000 पीपीएम है तो हवा में 1,000 अणु Co2 के होंगे। जबकि 9,99,000 अणु दूसरी गैसों, धूल व जल वाष्प के।
अब बात Co2 की बढ़ोत्तरी पर। मौना लोआ के साथ दक्षिणी ध्रुव की वेधशाला इस गैस पर 1958 से ही नजर रखे हुए है। पहला आंकड़ा जो यहां से 1959 में जारी हुआ, उसमें Co2 की मात्रा का वार्षिक औसत 315.97 पीपीएम था। यह 2018 में 92.55 अंक बढ़कर यह 408.52 पीपीएम के उच्चतम स्तर पर पहुंचा। मार्च 2024 में यह 426 पीपीएम रिकार्ड की गई। इससे पहले 2013 में पहली बार यह मात्रा 400 पीपीएम से ऊपर चली गई थी। अगर 1959 से लेकर 2018 तक वायुमंडल में विद्यमान कार्बन डाई ऑक्साइड की आकलन किया जाए तो हर साल इसमें 1.57 पीपीएम की दर से वृद्धि हुई। जबकि बीते एक साल मार्च 2023 से मार्च 2024 में दर 4.7 पीपीएम रही। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 450 पीपीएम Co2 पर तापमान में 2°C की वृद्धि होगी।

Co2 बढ़ने के मायने-मतलब
सरल शब्दों में Co2 बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ेगा। वह इसलिए कि हमारे वायुमंडल में चारों ओर फैली यह गैस धरती को गर्म रखती है। ठीक वैसे ही, जैसे धूप में खड़ी कार का अंदर का हिस्सा बाहर से ज्यादा गर्म रहता है। सूर्य से धरती तक पहुंच रही ऊष्मा का एक हिस्सा Co2 अपने तक रोके रखती है। मात्रा बढ़ने पर इसकी ऊष्मा रोकने की क्षमता भी बढ़ जाती है। इससे धरती तापमान बढ़ता रहेगा। यही ग्लोबल वार्मिंग है, जिसका नतीजा जलवायु परिवर्तन के तौर पर हम-आप महसूस भी कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन पर समझ बनाने के लिए 2024 की दुबई की तबाही को देख सकते हैं। 16 अप्रैल 2024 को शहर में इतनी बारिश हुई, जितनी दो साल में होती है। दुबई में 12 घंटों में करीब 100 मिमी और 24 घंटों में कुल 160 मिमी बारिश हुई। जबकि दुबई शहर में एक साल में औसतन 88.9 मिमी बारिश होती है। इससे शहर पानी-पानी था और शहरी बारिश के बंधक। सड़कों पर तैरती महंगी कारें, गिरती इमारतें, लबालब एयरपोर्ट.. उस वक्त सोशल मीडिया पर इस तरह के वीडियो आपके सामने से भी गुजरे होंगे। संयुक्त अरब ओमान के पड़ोसी ओमान और बहरीन में भी बारिश ने बर्बादी लाई। इसकी वजह ग्लोबल वार्मिंग मानी गई।
यूं ही, 2023 में एक तूफान ने लीबिया में बांधों को तोड़ दिया, जिससे बाढ़ आ गई। डर्ना शहर में तबाही मच गई और कम से कम 5,000 लोग मारे गए। पिछले साल ही बीजिंग के कुछ हिस्से भी जलमग्न हो गए थे, जब चीनी राजधानी ने 140 वर्षों की रिकॉर्ड भारी बारिश का सामना किया था। इस बाढ़ से कई घर बह गए थे और दर्जनों मौतें हुई थीं।
इस तरह की चरम मौसमी दशाएं बार-बार और दुनिया भर में हो रही हैं। यह अचानक और कम समय में घट जाती हैं। इसमें ‘असामान्य रूप से अधिक’ बारिश होती है, सूखा पड़ जाता है, तूफान आ जाता है। इससे जन के साथ धन का भी बड़े पैमाने पर नुकसान होता है। ग्लोबल कंसल्टिंग फर्म Aon के अनुसार, 2023 में दुनिया भर में 398 प्राकृतिक आपदाएं आईं। इनसे 380 बिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। 2022 की तुलना में यह नुकसान से 7 फीसदी ज्यादा है और 21वीं सदी के औसत से 22 फीसदी अधिक। इन आपदाओं में भूकंप, सुनामी, बाढ़, तूफान और सूखा शामिल थे।
इसके पीछे की वजह ग्लोबल वार्मिंग और उससे जलवायु के पैटर्न में आया बदलाव है। फसाना नहीं, यह आज वक्त का यथार्थ है। इससे विश्व का तापमान लगातार बढ़ रहा है। दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन पर हो रहे शोधों का विश्लेषण कर उसके नतीजे प्रकाशित करने वाली संस्था Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) के अनुसार, विश्व का औसत तापमान असमान्य तौर पर बढ़ रहा है।

कैसे होता यह?
यह सब कैसे होता है, आइए, एक छोटी सी प्रश्नोत्तरी के सहारे जलवायु परिवर्तन पर समझते हैं।
Q. जलवायु परिवर्तन क्या है?
A. इससे पहले यह समझना जरूरी है कि जलवायु क्या है? जलवायु का मतलब क्षेत्र विशेष में लंबे समय तक के औसत मौसम से होता है। मसलन, भारत में मौटे तौर पर सर्दी, गरमी और बारिश का वक्त तय है। जब इसका ढंग बदल जाए, गर्मी, सर्दी या बारिश बहुत ज्यादा होने लगे, यह तय समय से पहले आए या देरी से आए, इसका वक्त छोटा या बड़ा हो जाए… इस तरह के बदलाव को ही जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहा जाता है। कहीं एक देश, द्वीप पर नहीं, ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है।
Q. यह होता क्यों है?
A. ग्रीन हाउस इफेक्ट से।
Q. यह क्या है?
A. असल में पृथ्वी का वातावरण जिस तरह से सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर खुद को गरम रखता है, उसे ग्रीन हाउस इफेक्ट कहते हैं।
Q. मतलब?
A. पृथ्वी के चारों ओर ग्रीन हाउस गैसों की एक परत होती है। इनमें कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड शामिल हैं। इसमें सबसे प्रमुख कार्बन डाइऑक्साइड है।
Q. इससे क्या होता है?
A. यही वो परत है, जो सूर्य की अधिकतम ऊर्जा को सोख लेती है और धरती को गर्म रखती है। ठीक वैसे ही, जैसे धूप में खड़ी कार का अंदर का हिस्सा गर्म रहता है। किसी ठंडी जगह पर एक कार धूप में खड़ी हो। हम इसके अंदर बैठें तो बाहर की अपेक्षा गाड़ी के अंदर हमें अधिक महसूस होता है।
Q. ऐसा क्यों? धूप तो बाहर भी पड़ रही है और अंदर भी। तो फिर गाड़ी के अंदर अधिक गर्मी महसूस क्यों होती है?
A. यह ऐसे कि सूरज से आने वाली लघु तरंग दैर्घ्य का विकिरण यानि short wave radiation के रूप में ऊष्मा कांच से गाड़ी के अंदर प्रवेश कर जाती है और गाड़ी के अंदर के माहौल को गरम कर देती है। इस दौरान यह विकिरण गर्मी के रूप में दीर्घ तरंग दैर्घ्य मतलब long wave radiation में बदल जाती है। अपनी प्रकृति के कारण दीर्घ तरंग दैर्घ्य विकिरण गाड़ी के कांच से वापस बाहर नहीं आ सकता और अंदर ही फंस जाता है। और गाड़ी को गरम करती रहती हैं।
Q. लेकिन धरती में ग्लास कहां है?
A. ठीक बात है। सूर्य से आने वाला लघु तरंग दैर्ध्य विकिरण धरती पर टकराकर दीर्घ तरंग दैर्घ्य में बदल जाता है। इसको उतनी ही मात्रा में अंतरिक्ष को वापस लौट जाना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। यह जो धरती का वायुमंडल है, इसमें घुली हुई ग्रीन हाउस गैसें हैं, वह धरती को गरम रखती हैं।
Q. अगर गैसें न होती तो क्या होता?
A. सारा विकिरण वापस अंतरिक्ष में लौट जाता। और धरती 30 डिग्री सेल्सियस ज्यादा ठंडी होती। (हमारी धरती का औसत तापमान करीब 15 डिग्री सेल्सियस है।)
Q. मतलब गैस की चादर जरूरी है?
A. हां, अगर ग्रीन हाउस गैसें नहीं होती तो पृथ्वी पर जीवन नहीं होता।
Q. तो गड़बड़ क्या हुई?
A. यह जो सैन डिएगो के स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी का शोध है, इसी तरह के और भी बहुत से अध्ययन हैं, उनसे पता चलता है कि वातावरण में गैसों की मात्रा उसकी नियत सीमा से बहुत ज्यादा बढ़ गई है। इसके पीछे की बड़ी वजह अंधाधुंध औद्योगिकीकरण है। इसने वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ाई है। नतीजतन गैसों की परत मोटी होती जा रही है। यह परत ज्यादा ऊर्जा सोखकर धरती का तापमान बढ़ा रही है। यही प्रक्रिया ग्लोबल वार्मिंग है, जिसका नतीजा जलवायु परिवर्तन के तौर है।
Q. तापमान बढ़ने के सबूत क्या हैं?
A. अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा (NASA) की एक रिसर्च के अनुसार, 2022 में धरती की औसतन सतह का तापमान 2015 के बाद पांचवें सबसे गर्म साल के रूप में दर्ज हुआ। नासा ने हालात को खतरनाक करार दिया है। वैज्ञानिकों ने बताया कि 2022 में वैश्विक तापमान नासा की बेसलाइन टाइम (1951-1980) के औसत से 1.6 डिग्री फारेनहाइट (0.89 डिग्री सेल्सियस) अधिक था। IPCC भी तस्दीक करता है कि 2023 का साल पिछले करीब एक लाख साल में सबसे गर्म रहा। जून 2023 से पिछले मार्च 2024 तक लगातार 8 महीने में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ना जारी रहा। विश्व का औसत तापमान इस दौरान सामान्य से सामान्य से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक था जो की बहुत ही असामान्य है।

ग्रीन हाउस गैसें और वातावरण में उसकी मात्रा
. कार्बन डाइऑक्साइड- 76 फीसदी
. मीथेन- 16 फीसदी
. नाइट्रस ऑक्साइड- 6 फीसदी
. अन्य- दो फीसदी

ग्रीन हाउस गैसें और उनका स्रोतः
. मीथेन का ग्लोबल वार्मिंग पर प्रभाव Co2 की तुलना में 20 गुना ज्यादा है।
. औद्योगिक क्रांति (1750) के बाद से जिस गति से वायुमंडलीय Co2 में वृद्धि हुई है, वह पिछले 8,00,000 वर्षों के दौरान किसी भी समय की तुलना में कम से कम दस गुना तेज है और पिछले 5 करोड़ 60 लाख वर्षों की तुलना में चार से पांच गुना तेज है।
. 2011 से Co2 की सालाना औसत दर 410 पीपीएम तक पहुंच गई।
. करीब 85 फीसदी CO2 उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन (fossil fuel) के जलने से होता है। बाकी 15 फीसदी भूमि उपयोग परिवर्तन, जैसे वनों की कटाई और क्षरण से उत्पन्न होते हैं।
. दूसरी ग्रीन हाउस गैसों की सांद्रता भी कुछ बेहतर नहीं है। CO2 के बाद मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग में दूसरे और तीसरे कारक है।
. मानव गतिविधियों से मीथेन उत्सर्जन बड़े पैमाने पर पशुधन और जीवाश्म ईंधन उद्योग से आता है।
. नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन मुख्य रूप से फसलों पर नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग से होता है।

जलवायु परिवर्तन के संकट से घिरी मानवता
संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि धरती का तापमान (Global Warming/वैश्विक तापन) बढ़ने की गति तेज हो रही है। इसके लिए सीधे तौर पर इंसान जिम्मेदार हैं। यूएन के अंतर सरकारी निकाय जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी समूह (IPCC) ने एक रिपोर्ट में कहा है कि 2040 तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। वहीं, सदी के आखिर तक तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियस तक की होगी। सबसे खराब हालात में यह आंकड़ा 4 डिग्री सेल्सियस भी जा सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, तापमान बढ़ने का सीधा असर दुनिया भर की मौसमी दशाओं पर पड़ेगा। आपदाओं की संख्या व तीव्रता में बढ़ोत्तरी होगी। Extreme weather events (कम समय में तेज बारिश, गर्मी या ठंडी) इसकी वजह बनेंगे। इससे दुनिया के हर कोने में भारी तबाही होगी। जन-धन का बड़े पैमाने नुकसान होगा।
रिपोर्ट में भविष्य का भी आकलन किया है। आईपीसीसी का मानना है कि अगर तापमान को बढ़ने से रोक भी लिया गया, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण जो नुकसान हुआ है, उसे सदियों तक ठीक नहीं किया जा सकेगा। 1950 के बाद से पूरी दुनिया में अत्यधिक गर्मी, हीटवेव और भारी बारिश की घटनाएं तेजी से बढ़ेंगी। संयुक्त राष्ट्र ने इस तरह के हालात को ‘मानवता के लिए कोड रेड’ करार दिया है। इसका सीधा मतलब यही है कि जलवायु परिवर्तन आज की समस्या है। इसे भविष्य पर नहीं टाला जा सकता है।

इस तरह बढ़ रहा तापमान
. पिछला दशक (2011-2020) बीते 1.25 लाख वर्षों के मुकाबले ज्यादा गर्म था।
. 21 वीं सदी के पहले दो दशकों (2001-2020) के बीच 1850-1909 की तुलना में तापमान करीब 0.99 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। 2011-2020 के बीच यह बढ़ोत्तरी 1.09 डिग्री सेल्सियस पहुंच गई।
. 1.09 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि में से 1.07 डिग्री सेल्सियस का तापमान मानवीय गतिविधियों से जुड़ीं ग्रीनहाउस गैसों से हैं। दूसरे शब्दों में इंसानों की वजह से तकरीबन सारा तापमान बढ़ा है।
. अगले 20 साल में तापमान में बढ़ोत्तरी 1.5 डिग्री सेल्सियस अनुमानित है। इसके लिए भी शर्त यह है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन औद्योगीकरण से पहले के स्तर पर रखा जाए।
. यदि मौजूदा दर से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रहा तो 21वीं सदी के मध्य में ही वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस सीमा को पार कर जाएगा।
. ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

तापमान बढ़ने का असर
. तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि भारी से भारी बारिश की घटनाओं की तीव्रता 7 फीसदी बढ़ा देती है।
. समुद्री जलस्तर में वृद्धि 3,000 वर्षों में सबसे तेज है।
. आज की स्थिति में समुद्र का स्तर संभावित सीमा से ऊपर उठ सकता है, सदी के अंत तक 2 मीटर तक और 2150 तक 5 मीटर तक जा सकता है।
. अगर हम उत्सर्जन पर नियंत्रण कर लेते हैं और 2100 तक तापमान की बढ़त 1.5 डिग्री के आस-पास होती है, तब भी भविष्य में पानी के स्तर का बढ़ना जारी रहेगा।
. महासागरों का गर्म होना जारी रहेगा. 1970 के दशक से फिलहाल यह 2 से 8 गुना बढ़ गया है।
. आर्कटिक सागर की बर्फ 1,000 वर्षों में सबसे कम है।
. अगर हम अपने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित कर भी दें, तब भी अगले 1,000 वर्षों तक बर्फ का पिघलना जारी रहेगा।
. मानवीय गतिविधियों ने वैश्विक वर्षा (बारिश और हिमपात) को भी प्रभावित किया है. 1950 के बाद से कुल वैश्विक वर्षा में वृद्धि हुई है, लेकिन कुछ क्षेत्र ज्यादा गीले हो गए हैं, जबकि अन्य सूखे हो गए हैं।
. अधिकांश भू-क्षेत्रों में भारी वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है. ऐसा इसलिए है क्योंकि गर्म वातावरण अधिक नमी धारण करने में सक्षम है।

महासागर: गर्म, ऊंचे और अधिक अम्लीय
. महासागर को 91 फीसदी ऊर्जा ग्रीन हाउस गैसों से मिलती है। इन गैसों की मात्रा बढ़ने से गर्म होने के साथ समुद्र में ज्यादा हीटवेव पैदा हो रही है।
. यह घटना समुद्री जीवन की सामूहिक मृत्यु की वजह बनती है।
. पेरिस समझौते के अनुरूप तापमान 1.5-2.0 डिग्री तक सीमित करने के बाद भी सदी के अंत तक समुद्री हीट वेव चार गुना अधिक होगी।
. बर्फ की चादर तथा हिमनद पिघलने से 1901-2018 के बीच औसत समुद्र स्तर में 0.2 मीटर की वृद्धि हुई है।
. समुद्र का स्तर बढ़ने की गति लगातार तेज हो रही है। 1901-1971 के दौरान यह 1.3 मिली मीटर प्रति वर्ष रही थी। वहीं, 1971-2006 के दौरान प्रति वर्ष 1.9 मिमी और 2006-2018 के दौरान 3.7 मिमी प्रति वर्ष रही है।
. Co2 बढ़ने के से महासागर का अम्लीकरण सभी महासागरों में हुआ है। दक्षिणी महासागर और उत्तरी अटलांटिक में 2,000 मीटर से अधिक गहराई तक पहुंच रहा है।

इनको भी जानें

  1. मौना लोआ ज्वालामुखी
    मौना लोआ संयुक्त राज्य अमेरिका का सक्रिय ज्वालामुखी है। मतलब, इसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है। यह उन पांच ज्वालामुखियों में से एक है, जो एक साथ मिलकर हवाई द्वीप बनाते हैं। यह इस द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी द्वीप है। इससे द्वीपीय भूमि के करीब आधे हिस्से का निर्माण हुआ है। 2022 में इसमें विस्फोट हुआ था। ध्यान रहे कि मौना लोआ हवाई भाषा का शब्द है। इसका मतलब है लंबा पहाड़। यह सबसे ऊंचा नहीं, सबसे बड़ा है। यह समुद्र की सतह से 13,679 फुट ऊपर है।
  2. 1958 से मापी जा रही Co2
    मौना लोआ और दक्षिणी ध्रुव की वेधशालाएं दो ऐसी प्रतिष्ठित जगहें हैं, जहां 1958 से ही Co2 की मात्रा मापी जा रही है। मौना लोआ की नवीनतम रीडिंग से पता चलता है कि दुनिया में लगभग 426 पीपीएम Co2 है।
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